सुप्रसिद्ध नाटककार बादल सरकार द्वारा साठ के दशक में लिखा गया नाटक ‘पगला घोड़ा’, बांग्ला और हिंदी, दोनों भाषाओं में अनेक बार मंचित हो चुका है। इसके प्रसिद्द मंचनों में, बंगला में शम्भू मित्र द्वारा किया गया मंचन और हिंदी में श्यामानंद जालान, सत्यदेव दुबे तथा टी.पी. जैन द्वारा किये गए मंचन चर्चित रहे हैं। एक लम्बे अंतराल के बाद पटना में इस नाटक का मंचन फेसेस पटना के सहयोग से 27 नवम्बर 2020 को किया गया जिसमें मेरी भी भागीदारी थी और इसके दौरान मुझे इस नाटक के कथानक और रंगदृष्टि को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करने का अवसर मिला।
‘पगला घोडा’ को एक मनोवैज्ञानिक कथा की श्रेणी में रखा जा सकता है। तत्कालीन पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री की स्वीकार्यता पुरुष के शर्तों पर ही हो सकती थी। कमो-बेस, स्थिति आज भी वही है – और इस तथ्य की व्याख्या पगला घोड़ा के कथानक में बखूबी हुआ है।
बंगला में एक प्रसिद्द बाल-कविता है:
“आम का पत्ता जोड़ा-जोड़ा
मारा चाबुक दौड़ा घोड़ा।
छोड़ रास्ता खड़ी हो बीबी
आता है यह ‘पगला घोड़ा’।
नाटककार ने इस कविता के भाव को अपने नाटक में ‘स्त्री-पुरुष प्रेम की परिणति’ के रूप में अनुवादित कर कथा का सृजन किया है; और शीर्षक दिया है – पगला घोडा। ‘पगला घोड़ा’ यहाँ ‘पुरुष के प्रति स्त्री के प्रेम भाव’ का द्योतक है, जिसकी लगाम स्त्री के हाथ में नहीं बल्कि पुरुष के हाथ में हुआ करता है; जो उसे रौंद कर आगे बढ़ जाता है। चिता पर जलती हुई लड़की की आत्मा बार-बार इस कविता का प्रयोग करती है – और इसके माध्यम से स्त्री को ‘प्रेम-ज्वार’ यानि पगला घोड़े के रास्ते में न आने की चेतावनी देती प्रतीत होती है।
शायद, इसी लिए नाटककार ने इस नाटक को एक ‘मिष्टी प्रेमेर गल्प’ यानि मीठी प्रेम कहानी कहा है – किन्तु ‘रस-निष्पत्ती’ का कारुणिक तीखापन इस कथा पर हावी है।
नाटक का आरम्भ श्मशान में चार लोगों – ठीकेदार सातू बाबू, कार्तिक कम्पाउण्डर, पोस्ट-मॉस्टर शशि और टीचर हिमाद्री, द्वारा ताश खेलने के दृश्य से शुरू होता है – जो एक आत्महत लड़की की लाश जलाने आये हैं। इन चारों को ‘मलिक बाबू’ नामक एक प्रभावशाली व्यक्ति ने, जिसे मंच पर नहीं दिखया गया है, शराब की बोतल भेंट दे कर लाश जलाने भेजा है।
चिता जल रही है – और, चारो समय बिताने के लिए ताश खेल रहे हैं। हिमाद्री को छोड़ कर सभी शराब भी पी रहे हैं। तभी एक पांचवां चरित्र मंच पर आता है – जो चिता पर जलती हुई लडकी की आत्मा है। यहीं से मूल कथानक का आरम्भ होता है।
श्मशान में चिता की ज्वाला उन चारों को अपने जीवन में आयी स्त्रियों की स्मृति को प्रकाशित करती है। इन चारों ने प्रेम किया है – किन्तु निजी स्वार्थ, अहंकार, भीरुता, झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा और पारिवारिक परंपरा के कारण अपने प्रेम का प्रतिकार किया है। चारो अस्वीकृत स्त्रियाँ आत्महत्या कर, इसी तरह, किसी श्मशान में चिता की भेंट चढ़ चुकी हैं। चौथी लड़की वही है जो अभी जल रही है।
नाटक को उपरी तौर पर, वर्तमान समाज के नजरिये से देखा जाए तो ऐसा लग रहा है कि प्रेम में पराजित स्त्रियों ने आत्महत्या की है। किन्तु अंतरात्मा की आँख से देखने पर ऐसा लगता है कि यह पुरुष के अत्यचार, अपमान, अस्वीकार रूपी प्रछन्न हथियारों से की गई हत्याएं हैं।
हमाम में सब नंगे होते है, यही स्थिति इन चारों पुरुषों की है। लोगों से, समाज से, झूठ बोला जा सकता है; किन्तु अपने आप से, स्वयं से नहीं। यहाँ उपस्थित चारों लोग लड़की की जलती चिता को देखते हैं। चिता की आग आँखों के रास्ते अन्तस्तल में उतर कर, उनके द्वारा की गई अपरोक्ष हत्याओं की आत्मग्लानी और पश्चाताप की लपटों में बदल जाती है। एक भयंकर मानसिक द्वन्द इनके मन मस्तिष्क को झकझोरने लगटा है। इसी मानसिक द्वंद्व की प्रतिछाया के रूप में जलती चिता से उठ कर लड़की की आत्मा सामने आती है; और उन सबों के मन में छुपे रहस्यों को कुरेद – कुरेद कर बाहर निकालती है।
सबसे पहले शशि का अंतर्द्वंद्व बाहर आता है। मालती एक घरेलू, पारिवारिक लड़की है और शशि से प्यार करती है। शशि भी मालती से प्यार करता है, मगर तभी तक, जब तक मालती की शादी शशि के सगे फुफेरे भाई प्रदीप से तय नहीं होती। शशि अपनी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा बचाने के लिए मालती को प्रदीप के हाथो सौंप देता है – यह जानते हुए भी कि प्रदीप एक शैतान, अवारा, क्रूर और बदमाश लड़का है। मालती किसी भी हालत में शशि को नहीं छोड़ना चाहती, मगर शशि अपनी जिद पर रहता है। परिणामस्वरूप, मालती की शादी प्रदीप से हो जाती है। कुछ ही दिनों के बाद मालती आत्महत्या कर लेती है। शशि के मन के एक हिस्से में कहीं न कहीं एक दर्द घर कर जाता है – दिल के किसी कोने से आवाज आती रहती है कि मालती ने आत्म-हत्या नहीं की – उसके ही अदृश्य हाथों ने मालती का गला घोंटा है।
दूसरी लड़की मिली है। वह पढ़ी लिखी, ऊँचे और अमीर परिवार की आधुनिक लड़की है। मिली के छोटे भाई को पढ़ाने के लिए नियुक्त हिमाद्री के साथ मिली का प्यार परवान चढ़ता है। किन्तु इस प्यार में एक विसंगति है – हिमाद्री रुढ़िवादी हिन्दू परिवार से आता है, जबकि मिली खुली विचारों वाली आधुनिक लड़की है। हिमाद्री उसे अपने समाज की लड़की की तरह देखना चाहता है। वह अपनी मान्यताओं से कुछ भी समझौता नहीं करना चाहता, मगर मिली को पूरी तरह से अपनी जीवन-पद्धति, अभिरुचि और मान्यताओं के अनुरूप ढालना चाहता है। मिली भी बहुत कोशिश करती है, बहुत हद तक अपने आप को परिवर्तित भी करती है- किन्तु पूरी तरह से हिमाद्री के अनुरूप बनने में सफल नहीं हो पाती। हिमाद्री मिली को छोड़ कर चला जाता है फलस्वरूप मिली अवसाद ग्रस्त हो जाती है। …. और फिर एक दिन ओवर-ड्रिंक करके गाड़ी चलाने से मिली का एक्सीडेंट हो जाता है – और वह वह मर जाती है। श्मशान में हिमाद्री का यह कथन कि “वह एक एक्सीडेंट था – सुसाइड नहीं” उसके मन के भीतर दमित अपराध-बोध को उद्घाटित करता है।
तीसरी लड़की लक्ष्मी, ग्रामीण परिवेश की भोली भाली, गरीब और अनपढ़ लड़की है, जिसे कभी लड़की चुराकर बेचने वाले गुंडों से ठीकेदार सातु बाबू ने बचाया है। लक्ष्मी सातु को अपना सर्वस्व मानने लगती है। किन्तु सातु बाबू लोकापवाद और आर्थिक कारणों को ध्यान में रखते हुए, लक्ष्मी को अपने से बहुत बड़े ठीकेदार माधव बाबू के यहाँ रखवा देता है – एक तरह से उसे माधव बाबू के हाथों बेच देता है। लक्ष्मी प्रतिवाद करती है, लेकिन सातु उसकी एक नहीं सुनता। आगे चलकर लक्ष्मी, संभवतः (जैसा की कथोपकथन से इंगित होता है), वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेल दी जाती है – और अंत में रोगी होकर मर जाती है।
कथानक में रोमांच देते हुए लेखक ने सातु बाबु के हाथों ही लक्ष्मी का दाह-संस्कार करवाया है। श्मशान में सामने जलती चिता की डरावनी पृष्ठभूमि और शराब के नशें में सातु स्वीकारता है – कि आदमी एक बच्चे की भांति होता है – जिसे एक बढ़िया खिलौना मिलता है तो वह उसका मूल्य नहीं समझता। उठा-पटक के तोड़ देता है; और फिर उसके टूट जाने बाद भें-भें कर रोने लगता है। सातु का यह कथोपकथन, उसके और लक्ष्मी की कहानी का सार है – जो बताता है कि कहीं न कहीं प्रेम का एक अंकुर सातु के मन में भी था, जिसे समय रहते उसने अंकुरित नहीं होने दिया और इस बात की टीस अभी भी उसके ह्रदय में है।
चौथी और अंतिम लड़की वही है जो शमशान में जल रही है। इस लड़की को अपने जीवन में कोई प्रेम करने वाला नहीं मिला। पति पागल था, सुहागरात के दिन से ही लापता हो गया। नैहर में वृद्ध बाप, लकवा का शिकार है। नैहर में ही मलिक बाबू उस लड़की का हल्का फुल्का मन बहलाव करता है। वह लड़की किसी का प्रेम न पा कर जीवन से निराश हो जाती है। कार्तिक कम्पाउण्डर लड़की को उसके बचपन से ही चाहता है। मगर उम्र के अंतर, भीरुता, या किसी और कारण से वह अपने प्रेम इजहार नहीं कर पाता। लड़की अंत में उसके पास जहर मांगने आती है – मगर उस समय भी कार्तिक नहीं बता पाता कि वह उसे प्रेम करता है। किन्तु कार्तिक उसे जिन्दा रहने की सलाह देते हुए कहता है कि ”जिन्दा रहने से सब संभव है” … और सात दिनों के बाद वह लड़की को फिर से मिलने के लिए बुलाता है। लड़की, उसके प्रेम से अनभिज्ञ, समझ नहीं पाती कि सात दिनों में क्या हो जायेगा और आत्महत्या कर लेती है।
शमशान में सब के चले जाने के बाद कार्तिक के मन में उस लड़की के लिए बसा अगाध प्रेम स्वकथन के रूप में दर्शकों के सामने आता है। अपने प्रेम को जल कर राख होता देख वह कहता है कि सब शेष हो गया। दुःख और निराशा में डूबा कार्तिक जहर निकालता है, और उसे शराब में, पीने के उद्देश्य से मिलाता है। मगर गिलास उठाते ही उसे याद आता है कि उसने लड़की को क्या कहा था: “जिन्दा रहने से अच्छा कुछ भी नहीं, जिन्दा रहने से सब संभव है”। और जहर मिले शराब को जमीन पर उड़ेल देता है।
नाटककार ने इस दृश्य में जीवन के महत्व पर जोर दिया है। वक्त ही मर्ज देता है और वक्त ही हर मर्ज की दवा भी है – जरुरत है सिर्फ जिन्दा रहने की। इस विचार को नाटककार ने लड़की की आत्मा के पछतावे से निरुपित किया है। कार्तिक के मुख से अपने प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति को देख-सुन कर लड़की की आत्मा विह्वल हो जाती है – व्याकुल हो कर चीत्कार करती है – “मैं अभी भी शेष नहीं हुई हूँ ………. मुझे चिता पर से उतार लाओ ‘पगला घोड़ा”, मैं जीना चाहती हूँ”। लेकिन इस लोक में अब उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं था। वह जिन्दा रहती, तब सब संभव होता।
इस अंतिम दृश्य के साथ नाटक का पटाक्षेप होता है – किन्तु इस नाटक से उभरे प्रश्नों पर पर्दा नहीं गिरता। प्रेम इस जीवन और जगत का सर्वश्रेष्ठ उपहार है- अगर यह ‘पगला घोड़ा’ है, तो इसकी लगाम एक के पास नहीं जोड़े के पास होनी चाहिए।
आम का पत्ता जोड़ा-जोड़ा
मारा चाबुक दौड़ा घोड़ा।
छोड़ रास्ता खड़ी हो बीबी
आता है यह ‘पगला घोड़ा’।
पगला घोड़ा नाटक 1967 में लिखा गया लगभग 2 घंटे 40 मिनट का नाटक है। वर्तमान समय में इतने लम्बे नाटक प्रदर्शित नहीं किये जाते हैं – ख़ास कर व्यावसायिक नाटक के रूप में। इसलिए, एक निर्देशक की दृष्टि से मुझे लगता है कि मूल स्वरुप में यह नाटक आज के दर्शकों के लिए थोड़ा-बहुत बोझिल सा है। संवादों का संक्षेपण और दृश्यों का पुनर्संयोजन इसके मूल भावों को अधिक स्पष्ट कर सकता है, और दर्शकों का भरपूर मनोरंजक भी। रंगमंचीय तकनीक को ध्यान में रख कर यदि इस नाटक का ‘स्टेज-स्क्रिप्टिंग’ किया जाए तो आज भी यह नाटक दर्शको को बांधें रखने में सफल सिद्ध होगा।
इस आलेख का विडियो अंक निम्नलिखित लिंक पर उपलब्ध है:
सुनीता भारती, एम. ए. (नाट्य-शास्त्र)
नाट्य निर्देशक