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प्रगतिवादी रंगमंच और वामपंथी नाटकों में स्त्री-चित्रण

सुनिता भारती

एक प्रगतिवादी नाटक देखने के बाद दर्शकों को समझ में नहीं आता कि उन्होंने क्या देखा!

अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने भारतीय विद्वानों की ही एक भारत-विरोधी लॉबी का निर्माण किया था, जिसका काम था हिन्दू समाज को नीचा दिखाना; ताकि यह साबित हो सके कि जहाँ हजार तरह की अपरिष्कृत परम्पराएँ विद्यमान हैं, वह भारतीय सभ्यता परिष्कृत यूरोपीय सभ्यता का गुरु नहीं हो सकता। यह अभियान आज तक जारी है, जिसमें अब यूरोपीय साम्राज्यवादी बुद्धिजीवियों के साथ अमेरिकी भी शामिल हो चुके हैं। भारत में इस लॉबी के सदस्य हिन्दू संस्कृति को नीचा दिखाने वाले साहित्य और शोध पत्रों का प्रकाशन कर, पश्चिमी नियंत्रकों से इनाम और पैसा पाते हैं।

आजादी के पहले से ही भारतीय मार्क्सवादी इस लॉबी के सदस्य रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह रहा कि स्वतंत्र भारत के कुछ सरकारों ने इस लॉबी को शिक्षा पर अपना प्रभुत्व ज़माने की छूट दे दी। जिसका परिणाम यह हुआ कि विद्यालय स्तर पर भारत के इतिहास को विकृत कर दिया गया। इस लॉबी के प्रमुख नाम हैं: इरफ़ान हबीब, आर. एस. शर्मा और रोमिला थापर। धर्म निरपेक्षता की आड़ में इन लोगों ने भारतीय संस्कृति का जितना बड़ा अपमान और क्षति किया है वह मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा भारतीय संस्कृति के विध्वंस-अभियान से हजार गुणा अधिक घातक है, क्योंकि आगे आने वाली पीढ़ियों के दिल दिमाग में उनकी अपनी ही संस्कृति के प्रति विद्वेष भरने काम किया गया है।

चिंताजनक बात यह है कि वर्तमान सरकारी तंत्र भी अभी तक इस सांस्कृतिक क्षय की रोकथाम या उसकी क्षति-पूर्ती के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा सका है, और हमारे बच्चे वही इतिहास पढ़ रहे हैं, जो भारत विरोधी इतिहासकार पढ़ाना चाहते थे।

भारत में भारतीय-संस्कृति-विरोधी लॉबी का एक प्रमुख शाखा है – मार्क्सवादी रंगमंच; जो ‘प्रगतिवादी रंगमंच’ के छद्म नाम से सक्रिय है। समृद्ध भारतीय नाट्य परंपरा के क्षरण में इस प्रगतिवादी रंगमंच का बहुत बड़ा हाथ है। इन्होने नाटकों को राजनैतिक प्रचार का साधन बना कर – एक ‘तमाशा’ के रूप में परिवर्तित कर दिया है। इस लॉबी ने प्रदर्श कलाओं के प्रणेता भरत-मुनि को गौण कर के भारत में मार्क्सवादी ब्रेख्त को महान बताने का अभियान चलाया, जो आज भी जारी है। आप यदि ब्रेख्त के बारे में जानेंगे तो ज्ञात होगा कि उसकी एकमात्र उपलब्धि यही है, कि उसने, साहित्य और कला से नाटक का तलाक करवा कर उसे राजनीति का रखैल बना दिया[i]

भारत की परंपरागत नाट्य-शैली को तथाकथित प्रगतिवादियों ने ‘लोक-नाटक’ का नाम दे कर, उसे नीचे दर्जे का बताया; और अपने नाटकों को ‘प्रगतिवादी’। प्रश्न यह है, कि नाटक तो हमेशा आम जनता, यानी लोक के लिए और लोक के द्वारा ही किया जाता है[ii]। किन्तु प्रगतिवादी सिर्फ परंपरागत नाटकों को ही लोक-नाटक बता रहे है, तो फिर प्रगतिवादी नाटक को ‘परलोक-नाटक’ कहा जाना चाहिए!

….और वास्तव में लगता भी कुछ ऐसा ही है। प्रगतिवादी बनाम मार्क्सवादी नाटक परलोक-नाटक ही होता है, क्योकि उसमें झूठ, अतिशयोक्ति और पाखण्ड के आलावा कुछ नहीं होता। वे उसी चीज को मुद्दा बनाते हैं, जो मुद्दा होता ही नहीं – उद्देश्य होता है – सिर्फ परोक्ष या अपरोक्ष रूप से हिन्दू संस्कृति की निंदा करना। भारतीय संकृति में इन कुचेष्टाओं को ‘अधोगतिवादी’ क्रिया-कलाप कहा जाता है।

भारतीय नाटक पर मार्क्सवादियों के प्रभाव का एक और हानिकारक परिणाम रहा है; वह यह कि, एक दो शहरों को छोड़ कर, भारत में नाटक का व्यवसायीकरण नहीं हो सका। नाटक के अभिनेता और कलाकार आज अपनी कला दिखा भी पाते हैं तो सरकारी अनुदान के बल पर ही, अपनी कला से कमाने की बात तो दूर है। गुण हैं, किन्तु गुण-ग्राहक नहीं हैं।

पटना में तो स्थिति और भी बद्त्तर है। नाटक देखने वाले दर्शक हैं ही नहीं। नाटक के दर्शक रंगकर्मी ही होते हैं। वे भी दूसरे रंगकर्मियों के नाटक देखना नहीं चाहते। कसम दिला-दिला कर उन्हें बुलाया जाता है। ‘आपका पूरा नाटक हम देखे थे, आपको आना होगा’ – ऐसा कह कर दर्शक बटोरना पड़ता है, ताकि नाटक के रिकॉर्डिंग में दर्शक दिखें जिसे संस्कृति मंत्रालय भेजा जा सके। तो, आमंत्रित रंगकर्मी को भी अपना दर्शक बनाए रखने के लिए रंगालय जाना पड़ता है। वह प्रेक्षागृह में न जा कर पहले नेपथ्य में जाता है और आयोजक से मिलता है, ताकि आयोजक अथवा निर्देशक को मालूम पड़ जाए कि फलां आये थे। फिर वह प्रेक्षागृह में आता है, और फ़िराक में रहता है कि कब निकलें। जिन्हें कोई काम नहीं होता वे पूरा नाटक देख लेते हैं (या फिर हाल में सो लेते हैं) और नेताओं की तरह कुछ जुमले नाटक की प्रशस्ति में  निर्देशक या कलाकार को सुना देते हैं, जिसमें सर्वाधिक उपयोग में आने वाला जुमला है- ‘अरे आप तो छा गए‘’।

सवाल है, दर्शक क्यों नहीं हैं? – वह इसलिए, कि दर्शकों को पूर्वाग्रह ग्रस्त और फ़ालतू की चीजें परोसी जा रही हैं जिनका कि आम जीवन से किसी भी प्रकार का निकट सम्बन्ध नहीं है। दर्शक मनोरंजन के लिए पैसा खर्च कर सकते हैं, समस्या सुनने और राजनैतिक प्रचार देखने के लिए नहीं। एक प्रगतिवादी नाटक देखने के बाद दर्शकों को समझ में नहीं आता कि उन्होंने क्या देखा? क्योंकि वे काल्पनिक समस्याएं दिखाते हैं, और उसी की पुनरावृत्ति करते रहते हैं। दर्शक न तो वह स्थिति अपने परिवेश में देखता है, जिससे उसमें किसी भावना-विशेष का संचार हो सके, और न ही उन्हें मनोरंजन मिलता है। चूँकि भारतीय रंगमंच में आजादी के समय से ही इन प्रगतिवादियों का प्रभुत्व रहा है, इनके खेमा से बाहर के लोग भी इन्ही का नक़ल कर के, इन्ही की परंपरा पर चल पड़ते हैं और दर्शकों को लुभा नहीं पाते। अधिकांश प्रगतिवादी नाटक बहुसंख्यक दर्शकों की आस्था और धर्म पर आघात करने वाले होते है;  ऐसे में नाटकों का व्यवसायीकरण संभव नहीं।

हिन्दू संस्कृति में नारी-उत्पीड़न एक ऐसा विषय है जिस पर अनेकों प्रगतिवादी नाटक लिखे गए हैं, और उनकी पुनरावृत्ति की जाती रही है। इन नाटकों में दिखाया जाता है कि आदि काल से हिन्दू संस्कृति में नारियों पर अत्याचार होता रहा है। जबकि सत्य और तथ्य यह है कि पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति ही एकमात्र संस्कृति है, जिसमें नारी की पूजा होती है[iii]। वैदिक संस्कृति एकमात्र वह संस्कृति रही है, जहाँ पुत्र और पुत्रियों में कोई भेद नहीं था। दोनों को ही सामान रूप से शिक्षित किया जाता था; दोनों का उपनयन संस्कार होता था; दोनों ही यज्ञोपवित धारण करते थे, और समान रूप से यज्ञ और अनुष्ठान करते थे। बहुत सारे ऐसे भी अनुष्ठान थे जो केवल स्त्रियाँ ही करती थी।  विवाहित युगल के लिए यज्ञ में या किसी बलि-अनुष्ठान में पति पत्नी दोनों का भाग लेना अनिवार्य था, जो आज तक जारी है। यदि पति किसी कार्य में व्यस्त तो पत्नी अकेले ही धार्मिक अनुष्ठान समपन्न कराती थी[iv]

गृहस्थ जब यात्रा से घर में आता था तो बेटों और बेटियों के कल्याण के लिए समान प्रार्थना करता था[v]। इस संस्कृति में विद्वान् पुत्री की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान किये जाते थे।[vi] इस संस्कृति में एक ऐसा समय भी रहा है, जब समाज मातृसत्तात्मक था। सिन्धु घाटी सभ्यता के उत्खनन से प्राप्त सामूहिक शवगृहों के कंकालों में स्त्रियों के DNA आपस में निकट-सम्बन्धी होने, और पुरुषों के दूर संबंधी होने का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। इससे यह पता चलता है कि विवाह के बाद पुरुष, स्त्री के घर में रहा करते होंगे[vii]। सिन्धु घाटी के उत्खनन में मातृ देवियों की मूर्तियाँ जिस बहुतायत में मिली हैं, अन्य प्राचीन सभ्यताओं में नहीं मिलतीं। ऋग्वेद के सूत्रों की रचयिता स्त्रियाँ भी हैं, जिन्हें ब्रह्मवादिनी[viii] कहा जाता था। उनमें गोषा, अपाला, लोपमुद्रा, मैत्रेयी, गार्गी, इन्द्राणी, मुद्गालिनी एवं विश्वरा प्रमुख हैं। ऋग्वेद के मंडल 1 के स्तोत्र 179 में छः सूक्त अकेले लोपमुद्रा के द्वारा रचित हैं। ऋग्वेद में यह वर्णन है कि घर-गृहस्थी, आर्थिक और सामजिक क्रिया-कलापों में स्त्रियाँ, पुरुषों के समान स्वतंत्र थीं और कोई भी व्यवसाय चुन सकती थी। यहाँ तक कि योद्धा के रूप में भी स्वयं को स्थापित कर सकती थीं। ऋग्वेद में शशियानी, वध्रिमती, विश्पाला, दानु और सरमा नाम की वीरांगनाओं की चर्चा है। जाहिर है युद्ध-कर्म में और भी कम प्रसिद्द स्त्रियों की भागीदारी अवश्य रही होगी[ix]।  वैदिक काल में शिक्षण, नृत्य और संगीत में स्त्रियों का प्रमुख योगदान हुआ करता था[x]।  संपत्ति में पति और पत्नी का सामान अधिकार हुआ करता था[xi]। कन्याओं को अपना वर स्वयं चुनने का अधिकार था[xii]

वैदिक काल से लेकर मौर्य काल तक, भारत में स्त्रियाँ शिक्षा, संपत्ति, धर्म, समाज और यौनाचार में पुरुषों के सामान एवं स्वतंत्र थी। महाभारत में सत्यवती, कुंती, गांधारी, माद्री, द्रौपदी, गंगा आदि के अलावे कई कहानियां हैं जिसमें देवयानी, शर्मिष्ठा, माधवी, उलूपी, चित्रांगदा आदि स्त्री चरित्रों का चित्रण किया गया है। सभी कहानियों से एक बात स्पष्ट है, कि वैदिक और महाकाव्य काल में स्त्रियाँ यौन-आचार और व्यहार में पूर्ण रूपेण स्वतंत्र थी। विवाह-पूर्व यौन सम्बन्ध अथवा बहु-पतित्व, न तो प्रतिबंधित था, न ही निंदनीय। बल्कि इसके विपरीत, विवाहेत्तर संबंधो से उत्पन्न पुत्र और पुत्रियाँ भी संपत्ति के वैधानिक उत्तराधिकारी होते थे। आदि से अंत तक महाभारत में इस प्रकार के उदाहरण वर्तमान हैं। ययाति और शर्मिष्ठा के विवाहेत्तर संबंधो से उत्पन्न पुत्र पुरु बाद में हस्तिनापुर के राज्य का अधिकारी बने। महाभारत में देवयानी एक ऐसी उद्दात स्त्री चरित्र है, जिसे आज की भाषा में हम लाड़-प्यार से बिगड़ी हुई लड़की कह सकते हैं। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि प्राचीन भारत में स्त्रियाँ कभी भी दबी-कुचली नहीं थी, वरन इसके ठीक विपरीत उद्दात, स्वतंत्र और स्वछन्द  रही हैं।

किन्तु मार्क्सवादी नाटककारों ने इन पौराणिक चरित्रों को तोड़ मरोड़ कर, अपनी कल्पना से उन्हें विकृत रूप में प्रस्तुत किया है। इसका जीवंत उदाहरण भीष्म साहनी का नाटक माधवी है। यदि महाभारत में माधवी की मूल कहानी को पढ़ा जाए तो नाटक ‘माधवी’ का उद्देश्य स्पष्ट हो जाएगा कि इसमें माधवी के लिए सहानुभूति के छद्म-वेश में हिन्दू धर्म को अपमानित और विकृत रूप में प्रस्तुत करने की मंशा है। यही कारण है कि भारतीय विद्वान, यहाँ के विद्यार्थियों को हमेशा ही मूल श्रोत को पढ़ने की सलाह देते रहे हैं। इस सन्दर्भ में नव नालंदा महाविहार के कुलपति डॉ. वैद्यनाथ लाभ का यह व्याख्यान-अंश समीचीन है, जिसमें उन्होंने कहा है कि शोधार्थी और विद्यार्थी मूल श्रोतों को पढ़ें, द्वितीयक श्रोतों पर भरोसा कम करें।[xiii]

माधवी की कहानी महाभारत के ‘गालवचरित’ – उद्योग पर्व के श्लोक 104 से 121 में कहा गया है। मेरी सलाह है कि दर्शक पहले मूल कहानी को पढ़ें और फिर भीष्म साहनी के नाटक को। क्यों ऐसा नाटक लिखा जाता है, बिना किसी के सलाह के स्पष्ट हो जाएगा।

नारद जी द्वारा यह कहानी दुर्योधन को समझाने के क्रम में कहा गया है, कि दुराग्रह और अभिमान का परिणाम अच्छा नहीं होता, अतः दुराग्रह छोड़ दो अन्यथा गालव की तरह तुम भी अंतहीन समस्याओं से घिर जाओगे। कहानी यह है कि गुरु विश्वामित्र, गालव को बिना गुरुदक्षिणा दिए जाने को कहते हैं, क्योंकि उसने गुरु की समर्पित भाव से सेवा की है। किन्तु गालव जिद करता है कि वह दक्षिणा देगा ही। उसे उसके दुराग्रह के लिए सबक सिखाने के उद्देश्य से विश्वामित्र असंभव-सा गुरुदाक्षिणा मांगते हैं – आठ सौ अश्वमेधी घोड़ों की दक्षिणा। गालव दुश्चिंता में फंस जाता है; और माधवी वह चरित्र है, जो उसे इस समस्या से निकालती है। महाभारत की मूल कहानी में गालव को यह तथ्य ज्ञात नहीं था कि माधवी को पुत्रोत्पत्ती के बाद पुनः क्वांरी कन्या बन जाने का वरदान प्राप्त है। स्वयं माधवी उससे कहती है कि आप दो सौ घोड़ों के लिए मुझे हर्यार्श्व को दे सकते है।[xiv] भीष्म साहनी ने इस तथ्य को ययाति के मुख से कलावाया है, ताकि दर्शक इस भ्रम में रहें कि इस बहु-विवाह के लिए माधवी की मंशा नहीं थी, और माधवी का शोषण हो रहा है। मूल पाठ में ययाति द्वारा सिर्फ इतना कहा गया है कि – तस्माश्चातुर्णी वंशानाम स्थापयित्री सुता मम। इयं सुरसुतप्रख्या सर्वधर्मोपचायिनी।। (मेरी यह पुत्री चार वंशो की स्थापना करने वाली है, इसका सौंदर्य देव कन्याओं के सामान है और यह सभी धर्मों की अभिवृद्धि करने वाली है।)

इससे स्पष्ट है कि माधवी के चार विवाह पूर्वोक्त थे – क्योकि वह चार वंशो की स्थापना करने वाली बतायी गयी है।

गालव सर्वप्रथम माधवी को राजा हर्यश्व के पास ले जाते हैं। मूल पाठ में राजा हर्यश्व माधवी को बाहर से ही देख कर उसके रूप-गुण का वर्णन करते हैं, (न कि राजज्योतिषी के द्वारा उसकी जांच पड़ताल होती है, जैसा कि नाटक में दिखाया गया है)

हर्यश्वस्त्वब्रवीद राजा विचिन्त्य बहुधा ततः। दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य प्रजा हेतोनृपोत्तमः।।

उन्नातेपून्नता षट्सु सूक्ष्मा सूक्ष्मेसु पञ्चसु। गंभीरा त्रिषु गम्भीरेष्वियं रक्त च पञ्चसु।।

बहुदेवासुरालोका     बहुगन्धर्वदर्शना।     बहुलक्षणसंपन्ना   बहुप्रसवधारिणी।।

सौन्दयवान स्त्री के इन लक्षणों का वर्णन प्राचीन ग्रन्थ सामुद्रिक शास्त्र में दिया गया है:

(श्रोण्यौ ललाट मरू च घ्राणं चेति षडुन्नतम। सूक्ष्माण्यंगुलिपर्वाणि केशारोमनखत्वचः।।

स्वरः सत्वं च नाभिश्च त्रिगम्भीरं प्रचक्षते। पाणिपादतलेरक्ते नेत्रान्तौ च नाखानी च।।)

छः उन्नत अंग – दो नितम्ब, दो वक्षस्थल, एक नासिका (नाक) और ललाट।

पांच सूक्ष्म अंग – अंगुली के पोर, नख, रोम, त्वचा और केश।

पांच रक्तवर्णी अंग – हथेली, तलवा, बांया नेत्रप्रान्त, दायाँ नेत्रप्रांत  और नख।

तीन गंभीर अंग (स्वभाव) – मनोबल (अन्तःकरण), स्वर और नाभि।

सामुद्रिक शास्त्र और सौंदर्य शास्त्र में कहीं कहीं हथेली, तलवा, नख जीभ और होंठ – इन पांच को रक्तवर्णी होना बताया गया है। तीन गंभीर अंगों में नाभि का अभिप्राय मनुष्य की केन्द्रीय प्रवृत्ति से है।[xv]

पुरातत्व से हम जानते हैं कि प्राचीन काल में स्त्री अथवा पुरुषों के पहनावे, आज की तरह नहीं होते थे। भारत ही नहीं बल्कि ग्रीक, इजिप्ट और रोमन सभ्यताओं में भी सामान्य रूप से ऐसे कपड़े पहने जाते थे, जिसमें शारीरिक बनावट स्पष्ट दीखता था। आज उन पहनावों को फैशनेबुल अथवा नग्नता कहा जाएगा। इस्लाम में तो उन पहनाओं पर अविलम्ब फतवा जारी होगा। जाहिर है, उपरोक्त वर्णित अंगो की पहचान के लिए कपड़े उतारने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु भीष्म साहनी ने एक अकेले श्लोक के इस वर्णन को पूरा एक विभत्स दृश्य बना डाला है, जिसमें राज ज्योतिषी कपड़े उतरवा कर माधवी के अंग प्रत्यंग का परीक्षण करता है।

महाभारत की इस कहानी का मूल उद्देश्य है महाभारत कालीन इस परंपरा के बारे में बताना कि विवाह और प्रसूति के बाद भी यदि एक स्त्री विवाह-मुक्त होती थी, तो समाज में उसके साथ एक क्वांरी कन्या की तरह की व्यवहार किया जाता था। जब माधवी दूसरी शादी के लिए दिवोदास के पास जाती है, और गालव उसे पूरा वृत्तांत सुनाने लगते हैं, तो दिवोदास कहते हैं: श्रुतमेतन्मया पूर्वे किमुक्त्वा विस्तारम द्विज। कांग्क्षितो हि मयैषोऽर्थः श्रुत्वैव द्विजसत्तम।।

“यह मैं पहले ही सुन चुका हूँ और विस्तार से कहने की क्या आवश्यकता है। आपके प्रस्ताव से मेरे मन में (विवाह और पुत्रोपत्ति की) आकांक्षा जागी है”।

इससे यह बताने की कोशिश की गई है कि परित्यक्ता अथवा विधवा स्त्री भी प्राचीन काल में एक पुरुष के लिए, क्वांरी कन्या की तरह सम्मानित और वैधानिक विवाह तथा पुत्रोपत्ति के लिए ग्राह्य थी।

इस संदेशात्मक कथा को, जिसमें दंभ और दुराग्रह के दुष्परिणाम को बताया गया है, स्त्रियों के खरीद-फरोख्त की कथा बताना जघन्य कृत्य है।

महाभारत में ही दूसरी कहानी भी है जिसमें इसी सामजिक मान्यता की पुष्टि होती है। सत्यवती के पहले पति परासर से उत्पन्न पुत्र व्यास, महाभारत के रचयिता हैं। उनका पहला विवाह-गन्धर्व विवाह था। पुत्रोत्पत्ति के पश्चात भारत के सम्राट से उनका विवाह होता है और सत्यवती के ही शर्तों पर होता है। यह सर्वविदित है कि सत्यवती ने शांतनु से इस शर्त पर विवाह किया कि उन्ही से उत्पन्न पुत्र सिंहासन का उत्तराधिकारी होगा। गंगा ने भी शांतनु से अपनी ही शर्तों पर विवाह किया था। आज ईक्कीसवीं सदी में भी, किसी भी सभ्यता में लड़की की शर्तों पर विवाह, और फिर पुरुष के द्वारा आजन्म उसका निर्वहन दुर्लभ है।  इसी महाभारत में दौपदी का भी वर्णन है, जिसने वरदान में स्वयं के लिए पांच पतियों को माँगा था। महाभारत में ही माधवी की माता देवयानी की कहानी भी है, जिसमें उसकी महत्वाकांक्षा, उछृन्खलता और उन्मुक्त जीवन का जीवंत चित्रण है। यदि भारत में अनुदार पितृसत्तात्मक सामजिक व्यवस्था होती तो उपरोक्त कहानियों का कोई जिक्र ही नहीं होता। किन्तु इन कहानियों को किसी प्रगतिवादी ने नाटक का विषय नहीं बनाया। क्योंकि ये प्राचीन भारत में स्त्रियों के स्वछन्दता के अकाट्य प्रमाण होंगे। भारत और अमेरिका जैसे प्रजातांत्रिक देशों में भी मुस्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति जानवरों की तरह है, उस पर क्यों नहीं नाटक बनाए जाते? क्योंकि वहां फ़तवा जारी होने का भय है – हिन्दू संस्कृति की महानता से इर्ष्या करने वालों द्वारा दिया गया प्रलोभन तो मूल में है ही।

इस नाटक में लेखक ने गालव और माधवी में प्रेम दिखाया है, जो वास्तव में बिलकुल ही दोषपूर्ण है। मूल कथा में इस ओर रंचमात्र भी इंगित नहीं किया गया है। और तो और, माधवी को ययाति से प्राप्त करने के बाद, गालव की भूमिका एक पिता की है, जो ‘आसुरी विवाह’ के अंतर्गत ‘शुल्क’ लेकर उसका विवाह करता है[xvi]।  ज्ञातव्य है कि ‘शुल्क’ शब्द खरीद-फरोख्त का ‘मूल्य’ या ‘दाम’ नहीं है। हिन्दू धर्म में आठ प्रकार के विवाहों में एक, आसुरी विवाह के अंतर्गत, वर पक्ष के द्वारा कन्या के पिता को ‘शुल्क’ अथवा आज की भाषा में “bride-price” दिया जाता है[xvii]। अतः गालव की भूमिका एक पिता की तरह है, जिसे लेखक ने प्रेमी बना डाला है। यदि यह काम उन्होंने हजरत साहब के संदर्भ में किया होता संसार भर के मुस्लिम घरों से फ़तवा जारी होता और लेखक पद्म पुरस्कार के लिए जिन्दा नहीं होते। किन्तु हिंदुत्व संसार भर में अपनी सहिष्णुता के लिए जाना जाता है। हिन्दू धर्म की सहिष्णुता ने ही इसे हजार वर्षों तक गुलाम रखा। किन्तु यह भी सत्य है कि तमाम दुराग्रहों और अत्याचारों के बावजूद, भारतीय संस्कृति फलता फूलता रहा और समृद्ध है। हाँ, इसे समाप्त करने की मंशा रखने वाले जरुर ख़तम हो रहे हैं।

बौद्ध-जैन काल तथा परवर्ती समाज में भी स्त्रियों के स्वछन्द और प्रतिष्ठित जीवन के अनेकानेक प्रमाण हैं। वैशाली की नगरवधू आम्रपाली को उसके निम्न व्यवसाय के बावजूद ‘जनपद-कल्याणी’ जैसे उपाधि से विभूषित किया गया। उसका दर्जा किसी भी प्रकार लिच्छवी कुमारों या सामंतों से कम नहीं था[xviii]। मगध के नगरवधू के लिए ‘नगर-शोभिनी’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। लिच्छवियों में स्त्री योद्धायें भी थीं। जैन तथा बौद्ध धर्म में स्त्री पुरुष दोनों का प्रवेश मान्य था।

यह एक विचित्र बात है कि जिस किसी ग्रन्थ में, हिन्दू समाज की स्त्रियों के उच्च स्थिति का अकाट्य प्रमाण मिलता है उसे प्रगतिवादी काल्पनिक बताते हैं; और जहाँ कपोल कल्पना के आधार हिन्दू स्त्रियों को निम्न अवस्था में दिखाया जाता है, उसे अक्षरशः सत्य बताने वाला ग्रन्थ मान लेते हैं। भारत की प्रतिष्ठित संस्था CCRT में बैठे एक तथाकथित प्रगतिवादी महिला का कथन है कि आम्रपाली एक काल्पनिक चरित्र (Fictitious  Character) है, जिन ग्रंथों में उसकी चर्चा है, वे काल्पनिक हैं। जबकि आम्रपाली पर विश्व भर में सैंकड़ों शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं, उसके अस्तित्व के साहित्यिक और पुरातात्विक प्रमाण हैं। दूसरी ओर, काल्पनिक नाटक माधवी को इतिहास की किताब मान कर उसके आधार पर प्राचीन भारत में स्त्रियों के स्थति का वर्णन करने वाले वैसे लोग भी हैं, जिनका अपना धर्म ही स्त्री पर अत्याचार के लिए कुख्यात है। अगर भारत सरकार इस धर्म में स्त्री कल्याण के लिए कोई क़ानून बनाती है तो इनका पूरा समाज उठ खड़ा होता है – और ये उस पर कोई नाटक नहीं करते। इन्हें यह भी नहीं मालूम रहता है कि इनकी जड़ता पर श्रोता और दर्शक हंसते हैं। वैसे इस प्रकार के लोगों की एक मजबूरी भी है – इनमें अपनी कोई रचनात्मक क्षमता नहीं होती, इसलिए इनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती। ऐसे लोग किसी वाद से जुड़ कर ही अपनी आत्म-पहचान बना पाते है। अध्ययन भी उतना ही करते हैं, जिससे परीक्षा पास कर सकें। अतः जो एक बार सुन लिया वही ताउम्र दुहराना इनकी मजबूरी है।

राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण हिन्दू संस्कृति की छवि धूमिल करने के प्रयास इसलिए भी किये जाते हैं, कि संसार की अन्य सभी प्रतिद्वंदी संस्कृतियों में जिसमें पाश्चात्य और मुस्लिम धर्म भी शामिल है, कठोर पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था रही है। गुलाम स्त्रियों के खरीद फरोख्त और शोषण का इतिहास रहा हैं। उन संस्कृतियों का लिखित इतिहास उपलब्ध है इसलिए तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता। अतः जहाँ नारी-विमर्श अथवा ज्ञान-परंपरा की बात आती है, वहां भारतीय संस्कृति स्वमेव ही एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक-सामाजिक व्यवस्था के रूप में उभर कर सामने आता है, जिसके सम्मुख अन्य सभी संस्कृतियाँ धूमिल पड़ जाती हैं।  यही कारण है कि अनवरत इस संस्कृति में छिद्र ढूँढने के प्रयत्न जारी रहते हैं, जबकि वास्तविक स्त्री-दमन की जो समस्याएं वर्तमान हैं, उन पर ध्यान नहीं दिया जाता।

मुस्लिम समुदाय का तीन तलाक और तालिबानी क़ानून पूरे विश्व में एक धिकृत क़ानून है। भारत में सभी सरकारी कानूनों के बावजूद लड़कियों के कपड़े पहने तक का फरमान और फतवा जारी होता रहता है। मुस्लिम समाज में स्त्री बिना पुरुष के सहमति से तलाक नहीं ले सकती। लेकिन पुरुष तीन बार तलाक कह कर उसे घर के बाहर फेंक सकता है। इस्लाम में बहुविवाह की प्रथा है। एक आदमी एक समय में चार पत्नियाँ रख सकता है। ये सामजिक बुराइयां नाटकों का विषय कभी नहीं बनीं। यहाँ तक कि भारत सरकार के तीन तलाक क़ानून का भी विरोध इन्ही प्रगतिवादियों ने; और अपने आपको ‘लिबरल’ कहनेवालों ने किया। भारत जैसे देश में जहाँ जनाधिक्य है, मुस्लिम समुदाय का जनसँख्या पर रोक के नियमों को नहीं मानना वामपंथियों की नजर में सामाजिक बुराई नहीं है! उस पर नाटक नहीं बनते, लेकिन भगवन राम, माता सीता और हिन्दू धर्म की प्रतीक-स्त्रियों और प्रतीक-पुरुषों को गाली देना हो तो वहां धर्म का मामला नहीं होता। भारत की सहिष्णुता ने इसे बहुत रूलाया है, अतः अब भारतीय युवकों को इतिहास से सीख ले कर आगे की सोंच बनानी है।

उन देशों में जहाँ शरिया क़ानून लागू है, फांसी की सजा पायी क्वांरी लड़कियों का, फांसी के पहले बलात्कार किया जाता है। जींस पहनने के लिए लडकी को पत्थर मार कर मौत के घाट उतार दिया जाता है। और यह सब इक्कीसवीं सदी में हो रहा है। यदि दो तीन शताब्दी ही पीछे जाएँ तो वहां के दृश्य रोंगटे खड़े करने वाले हैं।  सभी पश्चिमी देशो और अरब तथा मेसोपोटामिया में गुलामों की परंपरा थी। वहां गुलाम स्त्रियों का आलू-प्याज की तरह खरीद-फरोख्त होता था। उनका यौन, शारीरिक और मानसिक शोषण ऐसे किया जाता था जैसे वे मनुष्य नहीं हों। इस्लाम के संस्थापक हजरत साहब युद्ध में बंदी बनाए गए स्त्री गुलामों का बंटवारा अपने सिपाहियों में किया करते थे[xix]। उनके के पास गुलाम रखैलो का एक बड़ा जमावड़ा था[xx]। ऐसे-ऐसे तथ्य है, जिन्हें अगर उजागर किया जाए तो संसार भर का मुस्लिम समुदाय जिहाद पर आएगा। किन्तु वामपंथी प्रगतिवादियों को सिर्फ हिन्दू समाज की ही बुराइयां नजर आती हैं।

भारत में भी स्त्रियों के स्थिति की अवनति मौर्य काल के बाद इन्ही विदेशी घुसपैठ के कारण आरम्भ हुआ। शक, सीथियन, हूण आदि के आक्रमणों और उसके बाद हिन्दू समाज में उनके घुल मिल जाने के कारण वैदिक सामजिक व्यवस्था का क्षय होने लगा। बारहवीं शताब्दी के मुस्लिम आक्रमण और प्रभुत्व के बाद हन्दू समाज की स्त्रियाँ, जो वैदिक काल में पुरुषों से श्रेष्ठ स्थिति में थी, अचानक से घरों में बंद कर दी गई। यह विश्वविदित हैं, कि मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा पराजित राज्य के स्त्रिओं का बलात्कार और उन्हें यौन गुलाम बना कर उनकी खरीद फरोख्त की सुदीर्घ परंपरा रही है। भारत से बाहर के इतिहासकारों और यात्रियों द्वारा भारत में इस्लामी अत्याचारों के अनगिनत वर्णन किये गए हैं जो भारत और विश्व के इतिहास में दर्ज है[xxi]। गुप्त काल के बाद से ही इसके समृद्धि के कारण भारत पर इस्लामी आक्रमण होने लगे थे। 12 वीं शताब्दी में मुहम्मद गोरी के अआक्रमण के बाद इस्लामी बर्बरता का सबसे बड़ा शिकार हिन्दू महिलायें हुईं हैं[xxii]। इन घटनाओं का एक संक्षिप्त इतिहास विकिपीडिआ में भी देखा जा सकता है[xxiii]

इस्लामी स्टेट के उग्रवादियों ने आज फिर से उस मध्यकालीन यौन-गुलामों के खरीद-फरोख्त के पेशे को पुनर्जीवित किया है, और धार्मिक आधार पर उसे न्यायसंगत बताते हैं[xxiv]

ICHR के पूर्व अध्यक्ष और इतिहासकार के. एस. लाल[xxv] ने लिखा है कि

“Enslavement of women, children and men, followed by their sexual exploitation was an integral part of the Muslim rule in Medieval India”. “महिलाओं, बच्चों और पुरुषों की दासता, और उसके बाद स्त्रियों का यौन शोषण, मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शासन का एक अभिन्न अंग था”।

इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि “The bloodstained annals of Sultanate of Delhi are not pleasant reading”[xxvi]. (दिल्ली सल्तनत का रक्तरंजित इतिहास पढ़ना आनंद का विषय नहीं है।)

H. A. R. Gibb[xxvii], जिन्होंने इब्न बत्तुता के यात्रा वर्णन का ट्रांसलेशन किया है, लिखा है कि,

“Of all the successors of Qutb-ad-Din down to the establishment of the Timurid dynasty (the 44 Grand Moguls) in 1526, there is scarcely one who was not intolerant, tyrannical, and cruel, and the same may be said, with few exceptions, of the minor dynasties.” (“कुतुब-अद-दीन के सभी उत्तराधिकारियों में, 1526 में तैमूर राजवंश (44 ग्रैंड मोगल्स) की स्थापना तक, शायद ही कोई ऐसा हो जो असहिष्णु, अत्याचारी और क्रूर नहीं था, और ऐसा ही, कुछ अपवाद के साथ, मामूली राजवंशों के लिए भी कहा जा सकता है”।)

इब्ने बतूता जो एक मोरक्कन यात्री था, 1333 से 1341 के बीच मुहमद बिन तुग़लक के सल्तनत में रहा था। अपने यात्रा वर्णन में उसने लिखा है,

“At (one) time there arrived in Delhi some female infidel captives, ten of whom the Vazir sent to me. I gave one of them to the man who had brought them to me…. My companion took three girls, and — I do not know what happened to the rest.”[xxviii]

[“(एक) समय वहां दिल्ली में कुछ काफिर (हिन्दू) महिलाओं को बंदी बना कर लाया गया, जिनमें से दस को वज़ीर ने मेरे पास भेजा। उनमें से एक मैंने उस आदमी को दे दिया, जो उन्हें मेरे पास लाया था …. तीन लड़कियों को मेरे साथी ने ले लिया, और – मुझे नहीं पता बाकी का क्या हुआ। ”]

उत्सवों के अवसर पर काफ़िर (हिन्दू) गुलाम लड़कियों के बंटवारे के बारे बत्तुता आगे लिखता है,

“First of all, daughters of Kafir (Hindu) Rajas captured during the course of the year, come and sing and dance. Thereafter they are bestowed upon Amirs and important foreigners. After this daughters of other Kafirs dance and sing… The Sultan gives them to his brothers, relatives, sons of Maliks etc. On the second day the durbar is held in a similar fashion after Asr. Female singers are brought out… the Sultan distributes them among the Mameluke Amirs”

[सबसे पहले, साल भर में पकड़ी गई हिन्दू राजाओं की लड़कियां आतीं हैं, जिन्हें नचवाया और गवाया जाता है, उसके बाद उन्हें अमीरों और विदेशी अथिथियों को दे दिया जाता है। इसके बाद साधारण काफिरों (हिन्दुओं) की लड़कियों को गवाया और नचाया जाता है, और उसके बाद सुल्तान उन्हें अपने भाइयों, रिश्तेदारों और ‘मालिक’ के बेटों को दे देता है। इसी तरह दुसरे दिन भी ‘अस्र’ के बाद दरबार लगता है, काफिरों की बेटियों से नचवाया और गवाया जाता है और सुलतान उन्हें ‘मामेलुक’ अमीरों को दे देता है”।]

इस भयानक और घिनौनी स्थिति के कारण ही भारत के राजपूतों और अन्य लड़ाकू जातियों में जौहर की प्रथा का शुरुआत हुआ। पुरुषों के युद्ध में मारे जाने के बाद मुस्लिम विजेता सम्पत्ति और स्त्रियों को लूटते थे और फिर आजन्म उन्हें यौन गुलाम बना कर उनका खरीद-बिक्री और उपहार की वास्तु के रूप में रूप में प्रयोग किया जाता था। एक स्त्री तीस बार तक विभिन्न खरीददारों से बेची जाती थीं[xxix]। यौन गुलामों को अंग ढकने का अधिकार नहीं होता था[xxx]। हर खरीददार, खरीदने के पहले उसके अंगप्रत्यंग का परीक्षण करता था[xxxi]। [शायद इसी मुसलमानी आचार को भीष्म साहनी ने माधवी के सन्दर्भ में आरोपित किया है]

इस्लाम में यह-सब धार्मिक प्रचालन के रूप में स्थापित था। अतः जैसे ही युद्ध में हारने का संकेत मिलता था, सामूहिक रूप से हिन्दू स्त्रियाँ आग में जल मरती थीं। बाद में यही परंपरा, सती प्रथा के रूप में बदल गयी, और यही कारण है कि मुख्य रूप से सती प्रथा का प्रचलन योद्धा-जातियों में ही था[xxxii]। ऐसी स्थिति में हिन्दू समाज और धार्मिक नियमों में बहुत से बदलाव आये, जिनमें लड़कियों की स्वतंत्रता कम कर दी गयी। उन्हें संरक्षित किया जाने लगा, उनके बाहर जाने पर रोक लगाया गया, उनके विवाह जल्दी किये जाने लगे, क्योंकि क्वांरी और बिन बच्चों की लड़कियां अतातायियों का प्रमुख निशाना हुआ करती थीं[xxxiii]

जाहिर है ये सामजिक बदलाव शनैः शनैः धर्मशास्त्रों के नियमों के रूप में तब्दील हो गये, जिनको ले कर प्रगतिवादी हाय तोबा मचाते हैं, लेकिन इसके कारणों पर जाने और चर्चा करने की हिम्मत नहीं करते।

ज्ञातव्य है कि वामपंथी नाटककार गिरीश कर्नाड ने, हिन्दुओं के कत्लेआम और बर्बरता के लिये प्रसिद्द मुहम्मद बिन तुगलक के जीवन पर नाटक ‘तुगलक’ लिखा है, जिसमें उन्होंने सुलतान को ‘सेक्युलर’ बताया है। गिरीश कर्नाड के अनुसार ऐतिहासिक नाटक के जमीन पर तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्था से मोहभंग को इस नाटक में दिख्याया गया है। किन्तु, विश्व-प्रसिद्द धार्मिक-असहिष्णु सुलतान को एक दम से धर्मनिरपेक्ष बता देने की इस चेष्टा को निर्लज्जता के आलावा किस शब्द से संबोधित किया जा सकता है? तथ्यों को छुपा कर हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि भले ही स्कूल की शिक्षा से इन तथ्यों को निकाल दिया गया हो, विश्वविद्यालय के इतिहास के छात्रों को तो इन तथ्यों के बारे में जानकारी है ही। उन्हें तो पता चल जाता है कि ऐतिहासिक नाटक में तथ्यों का सम्मान नहीं किया जाता। इससे रंगमंच की विश्वसनीयता समाप्त होती है।

इन्ही कारणों से प्रगतिवादी रंगमंच भारतीय समाज पर कोई छाप नहीं छोड़ सका। प्रगतिवादी रंगमंच और लेखकों का संगठन अब लगभग अंतिम साँस गिन रहा है। के. एन. पणिक्कर जैसे मार्क्सवादी भी इस बात को स्वीकार करते हैं, कि प्रगतिवादी रंगमंच और इप्टा, छिटफुट और क्षेत्रीय स्तर पर ही जीवित है, बदलते समय और दर्शकों के साथ खुद को  समंजित नहीं कर सके[xxxiv]

रंगमंच को प्रगतिवादी आदर्श और खेमें से बाहर निकालना जरुरी है। क्योंकि इस ‘वाद’ ने नाटक को ऐसा बना दिया है जिससे समाज में रंगकर्मियों का कोई ख़ास इज्जत नहीं है।  उन्हें ‘नचनिया बजनिया’ कहा जाता है। एक नवयुवक यदि समर्पित भाव से रंगमंच करना शुरू करता है, तो बाल पकने तक भी कोई उसे अपनी लड़की नहीं देना चाहता। क्योंकि इसमें न तो इज्जत है न आमदनी। अंत में बेचारा कलाकार मंच पर ही कही रंग जमा लेता है और सेहरा बांध लेता है। अतः नाटकों के विषय में बदलाव आवश्यक है, ताकि आम आदमी इससे जुड़ सके। स्त्री अथवा दलित पर अत्याचार की एक घटना, स्त्रियों और दलितों की सामजिक स्थिति का परिचायक नहीं हो सकता। इस तरह की घटनाएं हर देश और हर काल में होती रहीं हैं और वहां कानून अपना काम करता है। यदि नहीं करता तो जनता अपना काम करती है, जैसा कि विगत वर्षों में हमने कई बार देखा है। इस तरह के विषय ‘मार्क्स-धर्म’ निभाने के लिए प्रयुक्त हो सकते हैं, क्योंकि उनके लिए दुनिया की शुआत मार्क्स के जन्म के बाद हुआ है और सभ्यता की शुरुआत ‘रिनेशां’ के बाद हुआ है। किन्तु ये विषय दर्शक नहीं जुटा सकते। अतः नाटक को उपादेय बनाना और वास्तविकता के निकट लाना आवशयक है, और इस कार्य को स्वतंत्र चिंतन वाले युवा रंगकर्मी ही कर सकते हैं।


[i] चाहे उसके द्वारा प्रतिपादित एपिक थिएटर का कांसेप्ट हो अथवा तथाकथित V-effect फार्मूला, ये सभी मार्क्सवादी विचारों के प्रचार में नाटक को इस्तेमाल करने प्रविधियां थीं। खुद ब्रेख्त का कथन है कि “Marx is the only audience for my plays that I had come across”। 1995 में प्रकशित पुस्तक The Life and Lies of Bertolt Brecht में John Fuegi ने, ब्रेख्त के सहयोगी और उसके गर्ल गर्ल फ्रेंड्स के साथ साक्षात्कार तथा अप्रकाशित शोध पत्रों पर 25 वर्षों तक किये काम के आधार पर ब्रेख्त के बारे बहुत कुछ खुलासा किया है, जिसमें चौंकाने वाली बात यह है कि ब्रेख्त के नाटकों का 80 प्रतिशत उसके गर्ल फ्रेंड्स Elisabeth Hauptmann, Marieluise Fleißer, Ruth Berlau और Margarete Steffin द्वारा ब्रेख्त के sex-for-text स्कीम के तहत लिखा गया था। इन्हें इनके काम का क्रेडिट देने की बात तो दूर, ब्रेख्त ने इन औरतों के मरने जीने की परवाह भी नहीं की।

[ii] यह जुमला भी ब्रेख्त का ही है।

[iii] यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। Manusmriti, 3-56

[iv] Altekar, A. S. Position of Women in Hindu Civilization Chap-6 Page 232

[v] अस्वलायण गृह्य सूत्र – II, 3-17

[vi] अथ य इच्छेद्दुहिता मे पण्डिता जायेत, सर्वमायुरियादिति, तिलौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयाताम्; ईश्वरौ जनयितवै ॥ १७ ॥

He who wishes that a daughter should be born to him who would be a scholar and attain a full term of life, should have rice cooked with sesamum, and he and his wife should eat it with clarified butter. Then they would be able to produce such a daughter.

वृहदारण्यक उपनिषद VI – 4 – 17

[vii] Kennedy KAR, Chiment J, Disotell T, Meyers D (1984) Principal components analysis of prehistoric South Asian crania. Am J Phys Anthropol 64(2): 105–118

[viii] 30 ब्रह्म्वादिनियों की चर्चा ऋग्वेद में है।

[ix] Rig Veda 1.32.9, 5.61.6, 5.61.9, 10.39, 40

[x] IBID – 1.9.2, 1.9.4

[xi] IBID – IX 85.43

[xii] Rv, X 27.12

[xiii] https://youtu.be/BfPlqVSJtK4

[xiv] एतच्छ्रुत्वा तु सा कन्या गलावं वक्यमब्रवीत। मम दत्रो वरः कश्चित् केनचिद ब्रह्मवादिना।।

प्रसूत्यंते प्रसूत्यंते नन्यैव त्वं भविष्यसि। सा त्वं ददस्व मा राज्ञे प्रतिगृह्य हयोत्त्मान।।

नृप्येभ्यो हि चतुभर्यस्ते पूर्णान्याष्टौ शतानि में। भविष्यान्त ठाठ पुत्रा मम चत्वार एव च।।

क्रियतामुपसंहारो गुंवर्थे द्विजसत्तम। एषा तावन्मम प्रज्ञा यथा वा मन्यसेद्विज।।

(यह सुन कर कन्या ने महर्षि गालव से कहा “मुने, कभी किसी वेदवादी ब्राहमण ने कहा था कि हर प्रसव के बाद तुम क्वांरी कन्या बन जाओगी। अतः आप दो सौ उत्तम घोड़े ले कर मुझे राजा को सौंप दें।

[xv] भारतीय साहित्य की एक विशेष परंपरा रही है कि कहानियों और आख्यानों में विभिन्न विषयों की जानकारी किसी बहाने पाठक तक पहुंचाया जाता है। इसी कहानी में गरुड़ के द्वारा गालव को चार दिशाओं की तत्कालीन भौगोलिक स्थिति का परिचय कराया गया है। कालिदास के मेघ-दूतम में भी यक्ष के संवाद के द्वारा उस समय की भौगोलिक स्थिति एवं पर्वतों की अवस्थिति का वर्णन किया गया है। यह सूचनाएं इतिहासकारों के लिए  किसी रचना विशेष के काल निर्धारण में सहायक होती हैं। महाभारतकार ने हर्यश्व के बहाने सामुद्रिक शास्त्र में पूर्ण सौन्दर्यवान स्त्री के लक्षणों की जानकारी प्रस्तुत किया है। इसका मतलब यह हुआ कि वर्तमान रचना (महाभारत) सामुद्रिक शास्त्र के प्रणयन के बाद की रचना है। यह सही भी है, क्योंकि सामुद्रिक शास्त्र की मौखिक परंपरा वैदिक काल से है जबकि महाभारत उत्तर वैदिक काल का माना जाता है।

[xvi] Manusmriti

[xvii] यही शुल्क बाद में चल कर हिन्दू धर्म में ‘स्त्री-धन’ के रूप में पिता द्वारा कन्या को दिया जाता था। मुस्लिम धर्म में ‘महर’ का प्रचलन, इसी हिन्दू व्यवस्था से प्रेरित है। आज भी हिन्दू लॉ में भी स्त्री धन पर सिर्फ स्त्री का अधिकार होता है।

[xviii] Mhaparinirvan sutra,

[xix] Baladhuri, Kitab Futuh al-Buldan (“Book of Conquests”) – 9th century:

During Muhammad’s jihad on the Jews of Khaybar, he took for himself from among the spoils of war one young woman, a teenager, Saxya bint Huyay, after hearing of her beauty. (Earlier the prophet had bestowed her on another Muslim jihadi, but when rumor of her beauty reached him, the prophet reneged and took her for himself.

Muhammad “married” Saxya hours after he had her husband, Kinana, tortured to death in order to reveal hidden treasure. And before this, the prophet’s jihadis slaughtered Saxya’s father and brothers.

After the death of Muhammad, Saxya confessed that “Of all men, I hated the prophet the most—for he killed my husband, my brother, and my father,” before “marrying” (or, less euphemistically, raping) her.

[xx] https://wikiislam.net/wiki/List_of_Muhammads_Wives_and_Concubines ,

Khan, Muqtedar A., ‘SEX-SLAVERY & CONCUBINAGE’ Chapter VII – ‘Islamic Jihad: Legacy of Forced Conversion, Imperialism, and Slavery.

Other sources:  Al Tabari, Ibn Ishaq, Ibn Hisham, Ibn Sa’d; रंगीला रसूल, पंडित चमूपति, लाहौर, 1927.

[रंगीला रसूल was written by an Arya Samaji named Pandit M. A. Chamupati or Krishan Prashaad Prataab in 1927, whose name however was never revealed by the publisher, Mahashe Rajpal of Lahore. It was a retaliatory action from the Hindu community against a pamphlet published by a Muslim depicting the Hindu goddess Sita as a prostitute. On the basis of Muslim complaints, Rajpal was arrested but acquitted in April 1929 after a five-year trial because there was no law against insult to religion.

Muslims, however, continued to try to take his life. After several unsuccessful assassination attempts on him, he was stabbed to death by a young carpenter named Ilm-ud-din on 6 April 1929. Ilm-ud-din was sentenced to death and the sentence was carried out on 31 October 1929. Ilm-ud-din was represented by Mohammad Ali Jinnah as a defense lawyer.

Rangila Rasul had a surface appearance of a lyrical and laudatory work on Muhammad and his teachings; for example it began with a poem which went “The bird serves the flowers in the garden; I’ll serve my Rangila Rasul”, and called Muhammad “a widely experienced” person who was best symbolized by his many wives, in contrast with the lifelong celibacy of Hindu saints.

Originally written in Urdu, it has been translated into Hindi. It remains banned in India, Pakistan and Bangladesh.]

[xxi] Muhammad and Islam’s Sex Slaves by Raymond Ibrahim, FrontPage Magazine, October 16, 2014,

Tabqat-i-Nasiri, and Tarikh-i-Firoz Shah.

[xxii] Tabaqat-i Nasiri; Ibn Battuta; Firishta, Muhammad Qãsim Hindû Shãh; John Briggs (translator) (1829–1981 Reprint). Tãrîkh-i-Firishta (History of the Rise of the Mahomedan Power in India). New Delhi.

[Hindu temples were felled to the ground and for one year a large establishment was maintained for the demolition of the grand Martand temple. But when the massive masonry resisted all efforts, it was set on fire and the noble buildings cruelly defaced.]

Nicholas F. Gier, FROM MONGOLS TO MUGHALS: RELIGIOUS VIOLENCE IN INDIA 9TH-18TH CENTURIES

[xxiii] https://en.wikipedia.org/wiki/Persecution_of_Hindus

[xxiv] https://en.wikipedia.org/wiki/Sexual_violence_in_the_Iraqi_insurgency

[xxv] Lal, K. S., Muslim Slave System in Medieval India; South Asia Books; 1994, ISBN: 8185689679

[xxvi] Smith, Vincent, Oxford History of India, pages 236 to 246

[xxvii] Ibn Battuta, Travels in Asia and Africa 1325-1354

[xxviii] IBID

[xxix] Afrey, 2009, page 82

[xxx] Kamrava 2011, p. 193

https://en.wikipedia.org/wiki/Sexual_slavery_in_Islam

[xxxi] Pernilla, 2019, page 218

[xxxii] Ekar A.S., Position of women in hindu civilization, 1938, pp. 135-167

मुसलमान सुल्तानों और सामंतों ने  ‘डोला लेने’ की परंपरा बनाई जिसमें नवविवाहिता के डोली का अपहरण कर उसे सुलतान या अमीर के यहाँ ले जाया जाता था और बलात्कार के बाद उसके ससुराल वालों को सौंपा जाता था। इससे लड़कियों को सूअर की हड्डी से बना मंगल सूत्र पहनाया जाने लगा ताकि मुसलमान उसके शरीर को अपवित्र समझ कर छू न सकें। मुसलमानी आतंक के समाप्ति के 3 सौ साल बाद भी कुछ हिन्दू समुदायों में, खास कर राजपूतों में, यह परंपरा आज तक वर्तमान है जिसमें वधूओं को गहनों में अनिवार्य रूप से ‘ताग-पात-ढोलना’ चढ़ाया जाता है, जिसके ‘ढोलना’ में सूअर की हड्डी होती है।

[xxxiii] Surah xxxiii: 49, “Verily we make lawful ……… for thee what thy right hand possesses out of the booty God hath granted thee.” Muslims are allowed to take possession of married women if they are slaves.

Surah IV:3, 28, 29

Pernilla, 2019, p 222-23

[xxxiv] Panikkar, Social Scientist, Vol. 39, No. 11/12 (November–December 2011), pp. 14-25

बादल सरकार का नाटक पगला घोड़ा : कथानक और रंगदृष्टि

सुप्रसिद्ध नाटककार बादल सरकार द्वारा साठ के दशक में लिखा गया नाटक ‘पगला घोड़ा’, बांग्ला और हिंदी, दोनों भाषाओं में अनेक बार मंचित हो चुका है। इसके प्रसिद्द मंचनों में, बंगला में शम्भू मित्र द्वारा किया गया मंचन और हिंदी में श्यामानंद जालान, सत्यदेव दुबे तथा टी.पी. जैन द्वारा किये गए मंचन चर्चित रहे हैं। एक लम्बे अंतराल के बाद पटना में इस नाटक का मंचन फेसेस पटना के सहयोग से 27 नवम्बर 2020 को किया गया जिसमें मेरी भी भागीदारी थी और इसके दौरान मुझे इस नाटक के कथानक और रंगदृष्टि को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करने का अवसर मिला।

‘पगला घोडा’ को एक मनोवैज्ञानिक कथा की श्रेणी में रखा जा सकता है। तत्कालीन पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री की स्वीकार्यता पुरुष के शर्तों पर ही हो सकती थी। कमो-बेस, स्थिति आज भी वही है – और इस तथ्य की व्याख्या पगला घोड़ा के कथानक में बखूबी हुआ है।

बंगला में एक प्रसिद्द बाल-कविता है:

“आम का पत्ता जोड़ा-जोड़ा

मारा चाबुक दौड़ा घोड़ा।

छोड़ रास्ता खड़ी हो बीबी

आता है यह ‘पगला घोड़ा’।

नाटककार ने इस कविता के भाव को अपने नाटक में ‘स्त्री-पुरुष प्रेम की परिणति’ के रूप में अनुवादित कर कथा का सृजन किया है; और शीर्षक दिया है – पगला घोडा। ‘पगला घोड़ा’ यहाँ ‘पुरुष के प्रति स्त्री के प्रेम भाव’ का द्योतक है, जिसकी लगाम स्त्री के हाथ में नहीं बल्कि पुरुष के हाथ में हुआ करता है; जो उसे रौंद कर आगे बढ़ जाता है। चिता पर जलती हुई लड़की की आत्मा बार-बार इस कविता का प्रयोग करती है – और इसके माध्यम से स्त्री को ‘प्रेम-ज्वार’ यानि पगला घोड़े के रास्ते में न आने की चेतावनी देती प्रतीत होती है।

शायद, इसी लिए नाटककार ने इस नाटक को एक ‘मिष्टी प्रेमेर गल्प’ यानि मीठी प्रेम कहानी कहा है – किन्तु ‘रस-निष्पत्ती’ का कारुणिक तीखापन इस कथा पर हावी है।

नाटक का आरम्भ श्मशान में चार लोगों – ठीकेदार सातू बाबू, कार्तिक कम्पाउण्डर, पोस्ट-मॉस्टर शशि और टीचर हिमाद्री, द्वारा ताश खेलने के दृश्य से शुरू होता है – जो एक आत्महत लड़की की लाश जलाने आये हैं। इन चारों को ‘मलिक बाबू’ नामक एक प्रभावशाली व्यक्ति ने, जिसे मंच पर नहीं दिखया गया है, शराब की बोतल भेंट दे कर लाश जलाने भेजा है।

चिता जल रही है – और, चारो समय बिताने के लिए ताश खेल रहे हैं। हिमाद्री को छोड़ कर सभी शराब भी पी रहे हैं। तभी एक पांचवां चरित्र मंच पर आता है – जो चिता पर जलती हुई लडकी की आत्मा है। यहीं से मूल कथानक का आरम्भ होता है।

श्मशान में चिता की ज्वाला उन चारों को अपने जीवन में आयी स्त्रियों की स्मृति को प्रकाशित करती है। इन चारों ने प्रेम किया है – किन्तु निजी स्वार्थ, अहंकार, भीरुता, झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा और पारिवारिक परंपरा के कारण अपने प्रेम का प्रतिकार किया है। चारो अस्वीकृत स्त्रियाँ आत्महत्या कर, इसी तरह, किसी श्मशान में चिता की भेंट चढ़ चुकी हैं। चौथी लड़की वही है जो अभी जल रही है।

नाटक को उपरी तौर पर, वर्तमान समाज के नजरिये से देखा जाए तो ऐसा लग रहा है कि प्रेम में पराजित स्त्रियों ने आत्महत्या की है। किन्तु अंतरात्मा की आँख से देखने पर ऐसा लगता है कि यह पुरुष के अत्यचार, अपमान, अस्वीकार रूपी प्रछन्न हथियारों से की गई हत्याएं हैं।

हमाम में सब नंगे होते है, यही स्थिति इन चारों पुरुषों की है। लोगों से, समाज से, झूठ बोला जा सकता है; किन्तु अपने आप से, स्वयं से नहीं। यहाँ उपस्थित चारों लोग लड़की की जलती चिता को देखते हैं। चिता की आग आँखों के रास्ते अन्तस्तल में उतर कर, उनके द्वारा की गई अपरोक्ष हत्याओं की आत्मग्लानी और पश्चाताप की लपटों में बदल जाती है। एक भयंकर मानसिक द्वन्द इनके मन मस्तिष्क को झकझोरने लगटा है। इसी मानसिक द्वंद्व की प्रतिछाया के रूप में जलती चिता से उठ कर लड़की की आत्मा सामने आती है; और उन सबों के मन में छुपे रहस्यों को कुरेद – कुरेद कर बाहर निकालती है।   

सबसे पहले शशि का अंतर्द्वंद्व बाहर आता है। मालती एक घरेलू, पारिवारिक लड़की है और शशि से प्यार करती है। शशि भी मालती से प्यार करता है, मगर तभी तक, जब तक मालती की शादी शशि के सगे फुफेरे भाई प्रदीप से तय नहीं होती। शशि अपनी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा बचाने के लिए मालती को प्रदीप के हाथो सौंप देता है – यह जानते हुए भी कि प्रदीप एक शैतान, अवारा, क्रूर और बदमाश लड़का है। मालती किसी भी हालत में शशि को नहीं छोड़ना चाहती, मगर शशि अपनी जिद पर रहता है। परिणामस्वरूप, मालती की शादी प्रदीप से हो जाती है। कुछ ही दिनों के बाद मालती आत्महत्या कर लेती है। शशि के मन के एक हिस्से में कहीं न कहीं एक दर्द घर कर जाता है – दिल के किसी कोने से आवाज आती रहती है कि मालती ने आत्म-हत्या नहीं की – उसके ही अदृश्य हाथों ने मालती का गला घोंटा है।

दूसरी लड़की मिली है। वह पढ़ी लिखी, ऊँचे और अमीर परिवार की आधुनिक लड़की है। मिली के छोटे भाई को पढ़ाने के लिए नियुक्त हिमाद्री के साथ मिली का प्यार परवान चढ़ता है। किन्तु इस प्यार में एक विसंगति है – हिमाद्री रुढ़िवादी हिन्दू परिवार से आता है, जबकि मिली खुली विचारों वाली आधुनिक लड़की है। हिमाद्री उसे अपने समाज की लड़की की तरह देखना चाहता है। वह अपनी मान्यताओं से कुछ भी समझौता नहीं करना चाहता, मगर मिली को पूरी तरह से अपनी जीवन-पद्धति, अभिरुचि और मान्यताओं के अनुरूप ढालना चाहता है। मिली भी बहुत कोशिश करती है, बहुत हद तक अपने आप को परिवर्तित भी करती है- किन्तु पूरी तरह से हिमाद्री के अनुरूप बनने में सफल नहीं हो पाती। हिमाद्री मिली को छोड़ कर चला जाता है फलस्वरूप मिली अवसाद ग्रस्त हो जाती है। …. और फिर एक दिन ओवर-ड्रिंक करके गाड़ी चलाने से मिली का एक्सीडेंट हो जाता है – और वह वह मर जाती है।   श्मशान में हिमाद्री का यह कथन कि “वह एक एक्सीडेंट था – सुसाइड नहीं” उसके मन के भीतर दमित अपराध-बोध को उद्घाटित करता है।

तीसरी लड़की लक्ष्मी, ग्रामीण परिवेश की भोली भाली, गरीब और अनपढ़ लड़की है, जिसे कभी लड़की चुराकर बेचने वाले गुंडों से ठीकेदार सातु बाबू ने बचाया है। लक्ष्मी सातु को अपना सर्वस्व मानने लगती है। किन्तु सातु बाबू लोकापवाद और आर्थिक कारणों को ध्यान में रखते हुए, लक्ष्मी को अपने से बहुत बड़े ठीकेदार माधव बाबू के यहाँ रखवा देता है – एक तरह से उसे माधव बाबू के हाथों बेच देता है। लक्ष्मी प्रतिवाद करती है, लेकिन सातु उसकी एक नहीं सुनता। आगे चलकर लक्ष्मी, संभवतः (जैसा की कथोपकथन से इंगित होता है), वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेल दी जाती है – और अंत में रोगी होकर मर जाती है।

कथानक में रोमांच देते हुए लेखक ने सातु बाबु के हाथों ही लक्ष्मी का दाह-संस्कार करवाया है। श्मशान में सामने जलती चिता की डरावनी पृष्ठभूमि और  शराब के नशें में सातु स्वीकारता है – कि आदमी एक बच्चे की भांति होता है – जिसे एक बढ़िया खिलौना मिलता है तो वह उसका मूल्य नहीं समझता। उठा-पटक के तोड़ देता है; और फिर उसके टूट जाने बाद भें-भें कर रोने लगता है। सातु का यह कथोपकथन, उसके और लक्ष्मी की कहानी का सार है – जो बताता है कि कहीं न कहीं प्रेम का एक अंकुर सातु के मन में भी था, जिसे समय रहते उसने अंकुरित नहीं होने दिया और इस बात की टीस अभी भी उसके ह्रदय में है।

चौथी और अंतिम लड़की वही है जो शमशान में जल रही है। इस लड़की को अपने जीवन में कोई प्रेम करने वाला नहीं मिला। पति पागल था, सुहागरात के दिन से ही लापता हो गया। नैहर में वृद्ध बाप, लकवा का शिकार है। नैहर में ही मलिक बाबू उस लड़की का हल्का फुल्का मन बहलाव करता है। वह लड़की किसी का प्रेम न पा कर जीवन से निराश हो जाती है। कार्तिक कम्पाउण्डर लड़की को उसके बचपन से ही चाहता है। मगर उम्र के अंतर, भीरुता, या किसी और कारण से वह अपने प्रेम इजहार नहीं कर पाता। लड़की अंत में उसके पास जहर मांगने आती है – मगर उस समय भी कार्तिक नहीं बता पाता कि वह उसे प्रेम करता है। किन्तु कार्तिक उसे जिन्दा रहने की सलाह देते हुए कहता है कि ”जिन्दा रहने से सब संभव है” … और सात दिनों के बाद वह लड़की को फिर से मिलने के लिए बुलाता है। लड़की, उसके प्रेम से अनभिज्ञ, समझ नहीं पाती कि सात दिनों में क्या हो जायेगा और आत्महत्या कर लेती है।

शमशान में सब के चले जाने के बाद कार्तिक के मन में उस लड़की के लिए बसा अगाध प्रेम स्वकथन के रूप में दर्शकों के सामने आता है। अपने प्रेम को जल कर राख होता देख वह कहता है कि सब शेष हो गया। दुःख और निराशा में डूबा कार्तिक जहर निकालता है, और उसे शराब में, पीने के उद्देश्य से मिलाता है। मगर गिलास उठाते ही उसे याद आता है कि उसने लड़की को क्या कहा था: “जिन्दा रहने से अच्छा कुछ भी नहीं, जिन्दा रहने से सब संभव है”। और जहर मिले शराब को जमीन पर उड़ेल देता है।

नाटककार ने इस दृश्य में जीवन के महत्व पर जोर दिया है। वक्त ही मर्ज देता है और वक्त ही हर मर्ज की दवा भी है – जरुरत है सिर्फ जिन्दा रहने की। इस विचार को नाटककार ने लड़की की आत्मा के पछतावे से निरुपित किया है। कार्तिक के मुख से अपने प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति को देख-सुन कर लड़की की आत्मा विह्वल हो जाती है – व्याकुल हो कर चीत्कार करती है – “मैं अभी भी शेष नहीं हुई हूँ ………. मुझे चिता पर से उतार लाओ ‘पगला घोड़ा”, मैं जीना चाहती हूँ”। लेकिन इस लोक में अब उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं था। वह जिन्दा रहती, तब सब संभव होता।

इस अंतिम दृश्य के साथ नाटक का पटाक्षेप होता है – किन्तु इस नाटक से उभरे प्रश्नों पर पर्दा नहीं गिरता। प्रेम इस जीवन और जगत का सर्वश्रेष्ठ उपहार है- अगर यह ‘पगला घोड़ा’ है, तो इसकी लगाम एक के पास नहीं जोड़े के पास होनी चाहिए।

आम का पत्ता जोड़ा-जोड़ा

मारा चाबुक दौड़ा घोड़ा।

छोड़ रास्ता खड़ी हो बीबी

आता है यह ‘पगला घोड़ा’।

पगला घोड़ा नाटक 1967 में लिखा गया लगभग 2 घंटे 40 मिनट का नाटक है। वर्तमान समय में इतने लम्बे नाटक प्रदर्शित नहीं किये जाते हैं – ख़ास कर व्यावसायिक नाटक के रूप में। इसलिए, एक निर्देशक की दृष्टि से मुझे लगता है कि मूल स्वरुप में यह नाटक आज के दर्शकों के लिए थोड़ा-बहुत बोझिल सा है। संवादों का संक्षेपण और दृश्यों का पुनर्संयोजन इसके मूल भावों को अधिक स्पष्ट कर सकता है, और दर्शकों का भरपूर मनोरंजक भी। रंगमंचीय तकनीक को ध्यान में रख कर यदि इस नाटक का ‘स्टेज-स्क्रिप्टिंग’ किया जाए तो आज भी यह नाटक दर्शको को बांधें रखने में सफल सिद्ध होगा।

इस आलेख का विडियो अंक निम्नलिखित लिंक पर उपलब्ध है:

सुनीता भारती, एम. ए. (नाट्य-शास्त्र)

नाट्य निर्देशक

दीदारगंज यक्षिणी : सम्पूर्ण-नारीत्व का प्रतीक

1917 में पटना के दीदारगंज से प्राप्त मौर्य-कालीन प्रस्तर प्रतिमा ‘दीदारगंज यक्षिणी’ कला-इतिहास में एक विशिष्ठ स्थान रखता है। विश्व की कतिपय प्रसिद्द प्राचीन मूर्ति-कलाओं में प्राचीनता, कलात्मकता, रचनात्मकता और तकनीक की दृष्टि से इस कला-कृति का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इस कलाकृति को भारत1 का प्रथम त्रिविमीय नारी-मूर्ति होने का गौरव भी प्राप्त है।
दीदारगंज यक्षिणी की यह प्रतिमा एक पुरातन कलाकृति मात्र नहीं है, जिसके प्रदर्श मूल्यों की व्याख्या कर के संतुष्ट हो जाया जाए। इसका अस्तित्व अनेक अनसुलझे रहस्यों से घिरा है, जिनका उत्तर पुराविदों और इतिहासकारों के पास नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि इसके निर्माण से सम्बंधित सभी तथ्यों का खुलासा कभी न हो सके, क्योंकि सूदूर अतीत के इस ख़ास कलाकृति के बारे में सम्पूर्ण और सम्यक जानकारी के श्रोत बहुत सीमित हैं। परन्तु इसकी कलात्मकता, सौन्दर्य और कलाकार की सूक्ष्म अभिव्यक्ति के अध्ययन से इस कलाकृति के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है। मैंने इसी बात पर विचार किया है कि तथ्यों के विवादस्पद होने के बावजूद एक आम दर्शक सम्यक रूप से और सहज भाव से इसका अवलोकन करे तो कम से कम इसके निर्माण का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है।
18 अक्टूबर 1917 को दीदारगंज पटना में गंगा के किनारे इस की खुदाई संयोगवश ही हुई थी और नवम्बर के महीने में इसे नवनिर्मित पटना म्यूजियम में लाया गया था। तब से अब तक इसका काफी अध्ययन भी हुआ है, फिर भी इसका काल, इसकी पहचान, निर्माण के उद्देश्य और यहाँ तक कि 1917 में इसके प्राप्त होने की घटना आदि, निर्विवाद रूप से स्थापित नहीं हो सके हैं।
इस मूर्ति के अध्ययन को तीन सोपान में बांटा जा सकता है।
पहला, इसके मिलने के घटना-क्रम का विवरण जो मुख्य रूप से दो श्रोतों पर आधारित है: 1919 के जर्नल ऑफ़ बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी में डॉ. डी. बी. स्पूनर का आलेख एवं मालसलामी थाना के इंस्पेक्टर द्वारा 20-10-1917 को लिखा गया गोपनीय रिपोर्ट।
दूसरा, मूर्ति का पुरातात्विक और कलात्मक दृष्टि से अध्ययन जिसमें इसका काल-निर्धारण और मूर्ति की कलात्मकता से सम्बंधित तथ्यों का अध्ययन शामिल है।
तीसरा, इस कलाकृति के निर्माण का उद्देश्य, इसकी पहचान, एवं इसका सांस्कृतिक अथवा धार्मिक महत्व का विश्लेषण।

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खोज:

डॉ. डी. बी. स्पूनर2 ने अपने रिपोर्ट में इस कलाकृति के मिलने के सन्दर्भ में जो वर्णन किया है उसके अनुसार दीदारगंज कदम रसूल (नसीरपुर-ताजपुर, हिस्सा खुर्द, थाना मालसलामी, पटना सिटी के पूरब) में गंगा नदी के किनारे यह मूर्ति जमीन में गड़ी पाई गयी थी। अक्टूबर के महीने में नदी का जल स्तर गिरने के कारण किनारे की जमीन में इसका पेडस्टल एक चौकोर पत्थर के रूप में थोड़ा उपर उभर आया था। गाँव के काजी गुलाम मोइउद्दीन के युवक बेटे गुलाम रसूल की नजर में यह पत्थर आया तो उसने इसे घरेलू उपयोग के ख्याल से खुदवाना शुरू किया और इस तरह यह मूर्ति नामुदार हुई। जाहिर है, पत्थर के इस बुत को गाँव वालों ने देवी-देवता का मूर्ति समझा, इसलिए गुलाम रसूल ने आगे अपनी कोई रूचि नहीं दिखाई और पुलिस को इसकी सूचना दी। गाँव वालों ने इसे प्राप्ति स्थान से थोड़ा ऊपर, अलग ले जा कर इसकी पूजा पाठ शुरू की।
दूसरी ओर, 20-10-1917 को मालसलामी थाना के इंस्पेक्टर ने जो गोपनीय रिपोर्ट लिखा है, उसके अनुसार गंगा के किनारे, जमीन से उभरे एक चौकोर पत्थर पर लोग कपड़ा धोया करते थे। 18 अक्टूबर 1917 को जब गाँव की एक धोबिन उस पत्थर पर कपड़ा धो रही थी, एक सांप को पत्थर के निकट एक बिल/दरार में घुसते देखा गया। सांप को मारने के लिए जब लोगों ने आस पास की मिट्टी हटाई तो पाया कि यह एक आदम-कद स्त्री की प्रतिमा है और इसका पूजा पाठ करना शुरू किया। रिपोर्ट में सूचना देने वाले का नाम गुलाम रसूल अंकित है।
श्रोतों के अनुसार, 17-11-1917 को यह मूर्ति पटना म्यूजियम में लाई गई और पत्रांक 261, दिनांक 20-11-1917 द्वारा ‘पुरानिधि निखात कानून – 1878’ के तहत मि. ई. एच. सी. वाल्श ने इस कलाकृति को म्यूजियम में अधिगृहित किया। यानि प्राप्ति के ठीक एक महीने बाद यह कलाकृति पटना म्यूजियम पहुँच गयी थी। डॉ. डी. बी. स्पूनर की रिपोर्ट 1919 में जर्नल ऑफ़ बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी के पांचवें वॉल्यूम के दूसरे भाग में, यानि करीब डेढ़-दो वर्ष बाद छपा था। डॉ. स्पूनर की यह रिपोर्ट इस कलाकृति पर लिखे गए अधिकांश आलेखों का आधार है।
लेकिन इंस्पेक्टर की गोपनीय रिपोर्ट और डॉ. स्पूनर के विवरण का अंतर नहीं समझ में आता है, जबकि दोनों ही इसके प्रारंभिक जांचकर्ताओं में थे। दूसरी विचारणीय बात यह है कि मालसलामी के इंस्पेक्टर का रिपोर्ट ‘गोपनीय’ श्रेणी का क्यों था?
मुझे अभी तक इस प्रश्न का समुचित उत्तर, इस विषय पर लिखे गए उपलब्ध आलेखों में नहीं मिला है। शायद अनुसंधानकर्ताओं ने इस पर ज्यादा खोज-बीन नहीं की क्योंकि इस मूर्ति का पुरातात्विक और कलात्मक विश्लेषण ही उनके सामने मुख्य मुद्दा था।
किन्तु उपरोक्त दोनों रिपोर्ट्स को मिला कर देखा जाय तो कुछ ऐसी कहानी बनती है:
जमीन में गड़ी हुई मूर्ति का पेडस्टल जो जमीन के उभरा हुआ था, लोगों के द्वारा या धोबियों के द्वारा कपड़ा धोने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। निश्चित रूप से अचानक ही लोगों ने उसे खोदना शुरू नहीं किया होगा। जब 18 अक्टूबर को उसके बगल में सांप घुसते देखा गया तो लोगों को डर हुआ कि इस पत्थर को इस्तेमाल करने वाले के लिए सांप खतरा हो सकता है। गुलाम रसूल ने सोंचा होगा कि सांप मारने के बहाने इस पत्थर को निकलवा कर अपने घरेलू काम में लाया जाए, क्योकि पत्थर बिलकुल चौकोर था और घर या बाहर, किसी काम में उसका प्रयोग हो सकता था। उसी ने पत्थर खुदवाना शुरू किया था। जब मूर्ति मिली तो उसके किसी काम की नहीं थी, क्योंकि मानव मूर्तियाँ मुसलामानों के लिए स्वीकार्य वस्तु नहीं होती। किन्तु गुलाम रसूल ने मजदूरों को पैसा दिया होगा इसलिए मूर्ति पर अपना स्वामित्व जताया होगा और उस मूर्ति का कुछ और भी उपयोग करने की मंशा रखता होगा। चूँकि हिन्दुओं ने इसे किसी देवी की मूर्ति समझा था इसलिए, शायद, जबरदस्ती मूर्ति को खुदाई स्थल से हटा कर उसकी पूजा पाठ शुरू की, जिसकी सूचना गुलाम रसूल ने पुलिस को दी। शायद यही कारण है कि डॉ. स्पूनर ने लिखा है कि मूर्ति को अनधिकृत लोगों3 द्वारा खुदाई स्थल से हटाया गया। चूँकि अंग्रेज हिन्दू मुसलमान के बीच के तनाव को गंभीरता से लेते थे इसलिए, उन्होंने घटना की सत्यता के लिए इंस्पेक्टर से गोपनीय रिपोर्ट माँगा होगा।
दूसरी संभावना यह है कि गुलाम रसूल ने पत्थर को घर ले जाने के उद्देश्य से ही खुदवाया होगा और सांप वाली कहानी इंस्पेक्टर ने गढ़ी हो यह छुपाने के लिए कि गुलाम रसूल ने अनधिकृत रूप से खुदाई करवाया था, ताकि कोई मजहबी तनाव न बढ़े।
किन्तु ज्यादा संभावना पहली काहानी के सत्य होने का है, वही ज्यादा तर्कपूर्ण जंचता है। यही कारण है कि मैंने इसी कहानी को अपने नाटक यक्षिणी में दिखाया है।

काल निर्धारण:

अध्ययनकर्ताओं ने तुलनात्मक विश्लेषणों के आधार पर इसके काल-निर्धारण एवं इसकी पहचान (यह किस चीज की प्रतिमा है) का प्रयास किया है। यहाँ भी अनुसंधानकर्ताओं में एक-मत नहीं है। विभिन्न अनुसंधानकर्ता इसे ईसा पूर्व तीसरी शतब्दी (मौर्य-काल)4 से ले कर ईसा की पहली-दूसरी शताब्दी5 तक में बना हुआ मानते हैं। डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल और उनके पुत्र डॉ. पृथ्वी कुमार अग्रवाल, आर. पी. चंदा, प्रमोद चन्द्र, पी. के. जायसवाल आदि इस प्रतिमा को मौर्य काल का मानते हैं तो दूसरी ओर, जे. एन. बनर्जी, निहार रंजन राय, एस. के. सरस्वती आदि इसे उत्तर-मौर्य काल में बना हुआ मानते हैं। मुख्य रूप से जो इनके अध्ययन और निष्कर्ष की पद्धति है, वह मौर्य-कालीन कलाकृतियों के दो श्रेणियों में बाँट कर देखने की। कला-इतिहास के अधिकारिक विद्वान डॉ. कुमारस्वामी ने मौर्य-कलाकृतियों को दो भागों में बांटा है: राजकीय और परंपरागत, अथवा राज-पोषित-कला और लोक-कला। अन्य सभी विद्वान् इस विभाजन को मानते और इसी विचार-रेखा पर काम करते रहे हैं। राजभवन, स्तम्भ (लाट) और सार्वजानिक निर्माण आदि राजकीय कलाकृतियाँ मानी जाती हैं, जबकि, यक्ष-यक्षी, छोटे-मोटे बर्तनों या सजावटी सामान, मानवीय आकृतियाँ, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ इत्यादि लोक-कलाकृतियाँ हैं, जिनमें वैसी निपुणता या जीवन्तता नहीं दीखती जैसा कि राजकीय निर्माणों में दृष्टिगत है। शायद इसका कारण राजकीय निर्माणों में यूनानी-इरानी कलाकारों का सम्मिलित रहना है। इतना तो साफ़ है कि मौर्यकालीन स्तंभों और उनके शीर्ष के निर्माण-शैली पर यूनानी-इरानी प्रभाव है और बहुत संभव है विदेशी कलाकारों ने ही भारतीय कलाकारों को प्रस्तर निर्माण तकनीकों का प्रशिक्षण दिया हो। क्योंकि मौर्य काल से पहले भारत में लकड़ी की कलाकृतियाँ बनती थीं और पत्थर का प्रचलन नहीं था। जब मौर्य साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में हुआ और वहां से सांस्कृतिक सम्बन्ध बने तो यहाँ भी यूनानी-इरानी प्रस्तर कला का प्रसार हुआ। लेकिन भारतीय निर्माण शैली बिलकुल मौलिक है। यूनानी-इरानी और भारतीय निर्माणों को अगल-बगल रख कर देखने पर उनकी साम्यता और भिन्नता स्पष्ट नजर आती है और भारतीय कलाओं में मूल भारतीय अवधारणा की मौलिकता साफ दीखती है6
दीदारगंज प्रतिमा के सिर और नितम्बों के ऊपर का अग्र भाग, बिलकुल आधुनिक मूर्ति-कला की विशिष्ठता लिए है, जबकि इसके पश्च भाग में और कूल्हे से नीचे के अग्र भाग में वास्तविकता का आभाव दीखता है। जिसके चलते अपरिष्कृत यक्ष-यक्षी की अन्य मूर्तियों (जैसे, पटना यक्ष, पाखम, बेसनगर, पवाया, की मूर्तियाँ आदि) की तरह इसे भी पारंपरिक कलाकारों द्वारा बनाया गया माना जाता है और इसे यक्षिणी के मूर्ति के रूप में देखा जाता है। अन्य मूर्तियों से अलग जो इसकी विशिष्ठता है, उसे आगे चल कर विकसित हुए पारंपरिक (देशी) कला का परिणाम मान कर इसे मौर्य-काल के बाद का होने का अनुमान किया जाता है।
किन्तु यह आवश्यक नहीं कि दीदारगंज यक्षिणी वास्तव में यक्षी की ही मूर्ति है। प्रशांत कुमार जायसवाल7 का मत है कि दीदारगंज चामर-धारिणी किसी यक्षी की नहीं बल्कि चक्रवर्ती सम्राट के लिए अनिवार्य ‘स्त्री-रत्न’ की मूर्ति है। उन्होंने सम्राट अशोक के द्वारा नारी-सत्ता के उत्थान के लिए किये गए अनेक सुधारों का हवाला देते हुए अनुमान लगाया है कि यह मूर्ति अशोक द्वारा ही उसके राजकीय शिल्पी के देख रेख में ‘स्त्री-रत्न’ के प्रतीक के रूप में बनवाया गया होगा। अतः इसे लोक-कला की परंपरा की कलाकृति मान लेना दोषपूर्ण है। यह राज-पोषित कला हो सकता है जिसका निर्माण किसी विशेष उद्देश्य से, राजकीय कलाकारों की देख-रेख में किया गया हो। क्योंकि जिस कलाकार ने चहरे और वक्ष-स्थल का चित्रण असाधारण सूक्ष्मता से किया हो और उसमें स्वाभाविक लोच और जीवन्तता भरी हो, उसी कलाकार के द्वारा पैरों और पृष्ठ भाग के साधारण प्रारूपण की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अतः हो सकता है कि इस कलाकृति को किसी एक कलाकार ने नहीं बनाया, बल्कि एक गुरु (राजकीय-कलाकार) के अधीन अनेक कलाकारों ने इसे मिल कर बनाया होगा। महत्वपूर्ण भागों को स्वयं गुरु ने प्रारूपित (model) किया और शेष कम महत्व के भागों को शिष्यों अथवा कनिष्ठ कलाकारों ने। ऐसा ही डॉ. स्पूनर का भी मत है।
अतः, दीदारगंज प्रतिमा लोक-परंपरा की यक्षी नहीं, जो पूजा के उद्देश्य से बनाए जाते थे। उनमें चहरे पर सूक्ष्म भावों का अंकन और शरीर के बनावट में तरलता का अभाव होता है। इसलिए यह विचार ही सही लगता है कि एक राज-कला हैं, जो या तो एक परिचारिका की मूर्ति है अथवा चक्रवर्ती सम्राट-सुलभ सात रत्नों में एक, ‘स्त्री-रत्न’ की।
यदि यह एक परिचारिका है, जो सम्राट या देव-प्रतिमाओं के साथ सहायक आकृति के रूप में खड़ी की जाती थी, तो सममिति (symmetry) के ख्याल से किसी मुख्य प्रतिमा के साथ इस तरह की दो प्रतिमाएं होनी चाहिए, जिनमें सिर्फ एक ही मिली है। यानि एक केंद्रीय प्रतिमा और एक अन्य परिचारिका की प्रतिमा के कहीं मिट्टी में दबे होने की संभावना है। परिचारिकाओं की मूर्तियों का स्थान महलों या सभागारों (दरबार) के मुख्य द्वार पर भी हो सकता है। किन्तु वहां भी सममिति के ख्याल से इन्हें दो होना चाहिए। हो सकता है यह कलाकृति गेट के अगल-बगल, सामने की ओर मुँह किये दीवार के आगे खड़ी की गयी हो और शायद यही कारण है कि इसके पश्च भाग के मॉडलिंग पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया।
यदि यह स्त्री-रत्न की मूर्ति है, जैसा कि प्रशांत कुमार जायसवाल और कार्ल खंडालवाला मानते है, तो यह निश्चित रूप से अशोकन-आर्ट है, जिसे राजकीय कलाकारों की देख-रेख में बनवा कर उंचाई पर स्थापित किया गया होगा, जिस प्रकार आज महापुरुषों की मूर्तियों को चौराहे पर या किसी भवन के परिसर में प्लेटफार्म पर स्थापित किया जाता है।
इसके दीदारगंज के आस-पास मिलना इस बात को बल देता है कि इसे पाटलिपुत्र नगर के पूर्व द्वार के निकट स्थापित किया गया होगा (जो दीदारगंज के आस-पास रहा होगा)। सार्थों के मार्ग-वर्णन के आधार पर पाटलिपुत्र का पूर्वी नगर द्वार राजगृह को जाने वाले राजमार्ग पर था और जल-मार्ग से आने वाले सार्थों के व्यापारी भी वहां उतरते थे8। इस द्वार के चतुर्दिक “हट्ट” का स्थान था, अतः हो सकता है, स्त्री-रत्न की यह मूर्ति वहां किसी ऊँचे आधार पर इसलिए स्थापित की गयी हो कि इसमें निहित सन्देश सार्थ के व्यापारियों के साथ दूर-दराज तक पहुंचे। चूँकि मौर्य-राजा कुछ ज्यादा ही विज्ञापन-प्रिय थे, यह तर्क सटीक लगता है।
इसके उंचाई पर स्थापित होने के अनुमान के पीछे भी कारण हैं। उंचाई पर स्थापित प्रतिमाओं के वह भाग नहीं चमकाए जाते थे जिन पर देखने वाली की नजर नहीं जाती हो। जैसे, वैशाली स्तम्भ के शीर्ष- शेर के पाँव को भी नहीं चमकाया गया है। इसी तरह दीदारगंज यक्षिणी के पाँव को भी नहीं चमकाया गया है। पेडस्टल के साथ यह मूर्ति एक ही पत्थर की बनी है, और पेडस्टल की लम्बाई डेढ़ फीट से ज्यादा है। अतः आधार पर गड्ढा बना कर उसमें पेडस्टल को फिट करके इसे खड़ा किया गया होगा।
इस मूर्ति पर चमकदार पॉलिश और इसके चुनार का बलुआ पत्थर का बना होना तथा इसकी तमाम खूबियाँ जो अशोक-स्तंभों के शीर्ष मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं, इसके मौर्यकालीन होने के तथ्य को असंदिग्ध बनाते है। यह आवश्यक नहीं कि स्तंभों पर सूक्ष्मता से काम करने वाले निपुण कलाकार मानव-मूर्तियों को बनाने का काम नहीं करते होंगे। अतः यह लगभग निश्चित है कि दीदारगंज यक्षी मौर्य-कालीन है और अशोक-काल के प्रस्तर-कला की परंपरा के कलाकारों द्वारा ही निर्मित है।
यह एक आम जानकारी है कि खुदाई के दौरान प्राप्त पुरावशेषों का काल उसके पुरातात्विक काल-स्तर से जाना जाता है, किन्तु दीदारगंज यक्षी किसी खुदाई में प्राप्त नहीं हुई और न ही किसी पुरातत्व-वेत्ता के देख रेख में। फिर, इसका प्राप्ति-स्थान नदी का किनारा था जहाँ काल-स्तरों का ठीक ठाक रहना मुश्किल है। दुर्भाग्यवश इसके प्राप्त होने के स्थान का फिर से खुदाई नहीं कराया गया, और अधिक जाँच-पड़ताल नहीं की गई। हो सकता है कि वहां कुछ और प्राप्त होता जिससे इस कलाकृति के काल और निर्माण के उद्देश्यों पर कुछ और प्रकाश पड़ता।
फिर भी, यह तो लगभग निर्विवाद है कि यदि दीदारगंज इमेज अशोकन नहीं तो मौर्य-कालीन अवश्य है और इसी लिए इसके परिचय में इसका काल ई० पू० 299-200 बताया जाना सही है।

पहचान एवं विशेषताएं:

यह किस प्रकार का प्रतीक रहा होगा, इसका अनुमान भी सहज ही लगाया जा सकता है। इस प्रतिमा में नारी के सौन्दर्य और शारीरिक कमनीयता का सजीव और स्वाभाविक चित्रण है। पेट, कमर और गर्दन के पेशियों के वलय को सूक्ष्मता के साथ चित्रित किया गया है; स्तनों को पुष्ट (दूध से भरा) और भिन्न आकार में दिखाया गया है। कूल्हे को चौड़ा और भारी बनाया गया है। ये सारे अभिलक्षण भारतीय प्रतिमानों के अनुसार एक सुन्दर, कमनीय और सद्यः मातृत्व प्राप्त स्त्री के हैं। इसके आँख का तिरछा-पन, नज़रों का कोण थोड़ा आगे (ऊपर) होना और होठों पर एक मोहक स्मित का अंकन, स्त्री के शील, चपलता और मोहकता को जीवंत बनाने के लिए किया गया है, जो भारतीय साहित्य में नारी सौंदर्य-चित्रण में बहुलता से वर्णित है। अतः यह निश्चित रूप से ‘आदर्श नारी’ के प्रतीक के रूप में बनाया गया होगा। इस मूर्ति के चित्रण में वात्स्यायन के ‘काम-सूत्र’ में वर्णित नारी के अभिलक्षणों का समावेश दीखता है। ज्ञातव्य है कि वात्स्यायन का काल मौर्य-काल के आस-पास ही रहा है।
भारतीय वांग्मय में नारी सौन्दर्य, मातृत्व, सेवा और शक्ति की अधिष्ठात्री है। यह कोई मानव प्रदत्त प्रशस्ति नहीं बल्कि नारी के नैसर्गिक गुण हैं जिन्हें सनातन संस्कृति ने पहचाना और जाना था। प्रकृति में नारी (मादा) आधार रचना है और पुरुष अभिन्न उपांग। दीदारगंज यक्षिणी के कलाकार ने नारी के इन्ही चार नैसर्गिक विशेषताओं को इस मूर्ति के माध्यम से प्रदर्शित करने का सफल प्रयास किया है। ये विशेषताएं उसके चहरे, केश-सज्जा, वक्षस्थल, चामर, और कमर तथा नितम्बों के मॉडलिंग से पूर्ण हो जाता है। मुख्य कलाकार का काम यहीं तक दीखता है। मूर्ति के शेष भागों को सहायकों द्वारा पूरा किया प्रतीत होता है।
इसकी मुस्कराहट में दर्शक अपने भाव (वात्सल्य अथवा प्रेम) का स्पष्ट प्रत्युत्तर देखता है। यह इस मूर्ति की सबसे बड़ी विशेषता है जो स्त्री के मातृत्व एवं सौंदर्य-सत्ता (कामना) के प्रतीक को जीवंत बनाता है। कमर से आगे की ओर झुका हुआ स्निग्ध शरीर, ग्रीवा-त्रिवली, पतली कमर, विस्तृत कूल्हे आदि का चित्रण नारी के सौन्दर्य (गतिशील-कमनीयता) का प्रतीक है, जो सृष्टि को उर्वरा और गतिमान बनाए रखता है। इसके ‘दुग्ध-पूर्ण उरोज’ और ‘उदारावली’ मातृत्व के प्रतीक हैं9 ; इसके सम्पूर्ण शरीर और चहरे के भाव में एक ‘दृढ़ता’ है, जो शक्ति का प्रतीक है; और ‘चीवर’ सेवा भाव का प्रतीक है।

अद्वितीय:

इस कलाकृति की विशेषताओं का वर्णन कई आलेखों में है, जिसके सत्यापन के लिए मैंने स्वयं सूक्ष्मता से इसका निरिक्षण किया। प्रथम दृष्टि में मुझे इसका चेहरा ‘मंगोल’ बनावट का लगा। जब मैंने कुछ ध्यान से इसे देखा तो मुझे लगा कि यह चेहरे के कम ‘ओवल’ होने के कारण और इसकी मुस्कराहट को अंकित करने के लिए इसके ‘चिक-बोन’ में बनाये गए उभार के कारण ऐसा लगता है। आलेखों में भी मैंने कहीं इसके ‘मंगोलियन’ बनावट की बात नहीं देखी है। इसकी मुख-मुद्रा और मुस्कराहट कुछ ऐसी है मानो दूर से आते हुए किसी को देख कर मुस्कुरा रही हो। यादि आँखों के बनावट को थोड़ा दोष-पूर्ण माना जाए और यह समझें कि यह सामने देख रही है (दूर नहीं), तो ऐसा लगता है कि सामने वाले को ‘सुन’ कर या ‘देख’ कर प्रसन्न हो रही है और इसके मन में सामने वाले के लिए कोमल भाव हैं, और आगे इसके होठ कुछ कहने के लिए खुलने वाले हैं। इसकी मुस्कराहट आतंरिक प्रसन्नता के कारण होठों पर आयी कोमल स्मित है, प्रकट-हास्य की मुस्कुराहट नहीं है। बार-बार, अलग-अलग भाव लेकर मैं इसके सामने गयी और इसे देखा – हर बार मुझे अपने ही भावों का प्रत्युत्तर मिला। इसी तरह कोई पुरुष दर्शक भी इसे ध्यान से देख कर अपनी तरह से व्यक्तिगत अनुभव कर सकता है और उसे तत्क्षण यह आभास होगा कि इस कलाकृति का निर्माण पूजन के उद्देश्य से न होकर नारी के सार्वभौम महत्ता को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से ही किया गया होगा।
अतः, दीदारगंज यक्षी वास्तव में यक्षी नहीं, विश्व की वह पहली प्रतीकात्मक कृति है जिसके माध्यम से नारी के सार्वभौमिक महत्व को आज से दो हजार साल पहले प्रदर्शित किया गया था; और प्राचीन भारतीय कालाओं में दीदारगंज यक्षिणी एकमात्र रचना है जो सम्पूर्ण रूप से नारी-शक्ति को समर्पित किया गया था – बिना देवी-देवता की संज्ञा दिए10 । हमारे लिए यह गौरव की बात है कि ‘नारी की सम्पूर्णता’ को समर्पित विश्व का यह पहला स्मारक हमारे बिहार की देन है।

नाटक यक्षिणी:

चामर धारिणी का एक सांस्कृतिक मूल्य भी है, जिसकी हमेशा से उपेक्षा होती रही है11। डॉ. स्पूनर और प्रो० समादार, (जिन्हें इस कलाकृति को बिहार की जनता को समर्पित करने का श्रेय जाता है) भी उस वक्त ग्रामीणों से यह ज्ञात करने का जहमत नहीं उठा पाए कि प्रथम दृष्टि में उन लोगों ने इस मूर्ति को कौन सा देवी समझा जिसकी पूजा उन्होंने शुरू की। हर संस्कृति में कुछ परंपरागत मानदंड होते हैं जिसके आधार पर ग्रामीण किसी देवी देवता का पहचान कर पाते हैं; ठीक उसी प्रकार जैसे कला-इतिहासकार और पुरातत्वविद पुरातत्व विज्ञान के नियमों से करते हैं। अंतर यह है कि पहले का मानदंड विश्वास और परंपरा पर आधारित होता है और बाद वालों का तथ्य पर। किन्तु कभी – कभी स्थानीय सांस्कृतिक मानदंड भी कलाकृति के पहचान और विवरण में मूल्यवान साबित होते हैं। यह तो निश्चित है कि ग्रामीणों ने इसे देवी-देवता ही समझा था, नारी-सौन्दर्य का प्रतीक नहीं, क्योंकि कलाकृतियों का निर्माण प्राचीन भारत में ज्यातर धार्मिक उद्देश्य से ही हुआ है और जन मानस में मूर्तियाँ धार्मिक प्रतीक के रूप में ही अंकित है। फिर भी, मेरे विचार से ग्रामीणों के मंतव्य को जानना आवश्यक था।
चामर-धारिणी या इस तरह की अनेक उत्कृष्ट कलायें संग्रहालय की चाहरदीवारी के भीतर एक अमूल्य धरोहर और विद्वान् विश्लेषकों के लिए वैज्ञानिक, ऐतिहासिक और कलात्मक विश्लेषणों का विषय बन कर रह जाती है; जन-साधारण के ह्रदय में कोई कोमल स्थान नहीं बना पाती। आम आदमी इसे एक पुरानी मूर्ति की तरह देखता है। गाइड्स के द्वारा, ‘कब का बना हुआ है और कैसे मिला’ की सर्वमान्य कहानी सुन कर बाहर आ जाता है। भले ही विदादास्पद सही, किन्तु इसके बनाने के उद्देश्य और इसमें निहित सन्देश अवश्य ही ‘महत’ रहे होंगे। तभी इसके निर्माण में इतना श्रम और साधन खर्च किया गया होगा। और फिर राजा का आदेश, उसके द्वारा प्रदत्त साधन और उसके निर्माण के निर्देश मात्र ही चामर धारिणी का निर्माण नहीं कर सकते थे। प्रत्येक कला के निर्माण में एक भावनात्मक पक्ष भी होता है। यह कलाकार का ‘मन’ होता है जो अंतिम रूप में कलाकृति का प्रणयन करता है, राजा का ‘धन’ नहीं। मूर्ति के निर्माण की पृष्ठभूमि कुछ भी रही हो, जब कलाकार छेनी और हथौड़ा हाथ में पकड़ कर किसी अनगढ़ पत्थर के सामने खड़ा होता है, तो उसका ‘मस्तिष्क’ नहीं बल्कि उसका ‘ह्रदय’ उसके हाथों को गति प्रदान करता है। कलाकार के ह्रदय में अवश्य ही किसी मूर्त नारी का स्वरुप रहा होगा, जो उसके लिए मूल्यवान रही होगी, प्रिय रही होगी। उसकी छवि उसके मन की आँखों में बसी होगी, तभी वह पत्थर की कठोर काया में कोमल कल्पना को साकार कर पाया।
चामर-धारिणी की कमनीयता को देख कर उपरोक्त बातों को झुठलाया नहीं जा सकता। अतः इसके साहित्यिक और भाव पक्ष को भी समझना और समझाना आवश्यक होगा, तभी इस कलाकृति के सार्वभौम व्यापक मूल्यों की पहचान और जन-मानस में इसके लिए लगाव संभव है।
इन्ही उद्देश्यों को ले कर, दो हजार साल पूर्व के मौर्य कलाकार के तर्ज पर मैंने भी दीदारगंज-इमेज की कहानी को ‘यक्षिणी’ नाम से नाट्य-रूप देकर नारी समाज को समर्पित किया है12। ‘यक्षिणी’ नाम इसलिए लिया गया क्योंकि आम जनता में यह इसी नाम से प्रसिद्द है। नाटक के प्रथम अंक में इसकी खोज की कहानी और इससे सम्बंधित सभी (ऐतिहासिक, पुरातात्विक, सौन्दर्यशास्त्रीय, कलात्मक आदि) तथ्यों का वर्णन किया गया है। साथ ही, इसके स्थानीय और तत्कालीन मान्यता के आधार पर इसके सांस्कृतिक मूल्य को भी प्रदर्शित करने का प्रयास मैंने किया है।
किसी पुरावशेष-कलाकृति के प्रदर्श भी, पुरातात्विक, वैज्ञानिक और कलात्मकता के शुष्क मानदंडों के आधार पर ही आंकने की परंपरा है, जिसके कारण पुरातात्विक कलाकृतियाँ विद्वत-समूह के लिए ‘अध्ययन और अन्वेषण’ का विषय बन कर रह जाती है और आम आदमी भी उन्हें ‘पढ़ाई-लिखाई’ की वस्तु समझने लगता है। कलाकृतियाँ आम आदमी के मनोभावों को आंदोलित नहीं कर पाती, कामनाओं को झंकृत नहीं कर पाती, जो कि वास्तव में ‘कला’ का उद्देश्य होता है। अतः उक्त मानदंडो के अतिरिक्त हमें इसके प्रदर्श मूल्य को आंकने और बताने के लिए भावात्मक/काव्यात्मक मानदंडों और प्रतिमानों का भी प्रयोग करना चाहिए। ज्ञात तथ्यों के ठोस धरातल को कल्पनाशीलता की तरलता प्रदान करनी चाहिए ताकि कलाकृति जनमानस में प्रविष्ट हो सके।
यही कारण है कि इस नाटक में मैंने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में इसके निर्माण की कहानी को ‘तथ्यों की सीमा में परिबद्ध एक मिथक’ के रूप में प्रस्तुत किया है। इस विधि से चामर धारिणी, और इस जैसे कई अद्भुत किन्तु अनाम कलाकृतियों को हम उस विशाल जन-मानस तक पहुंचा सकते हैं, जहाँ तक की यात्रा के लिए कभी सूदूर अतीत में इनका उद्भव हुआ था। तथ्यों का विश्लेषण जितना महत्वपूर्ण है, उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है ज्ञात तथ्यों और प्राचीन कलाकृतियों में निहित समाजोपयोगी सन्देश को जन-जन तक पहुंचाना। यह विरासत संरक्षण के साथ साथ सामजिक परिष्कार का भी लक्ष्य सिद्ध करता है।
सार्वजनिक संग्रहालय विज्ञान के क्षेत्र में भी इस बात की आवश्यकता है कि कलाकृतियों के तथ्यात्मक अध्ययन के साथ इसके काव्यात्मकता का भी मूल्यांकन और दोहन किया जाए। उनमें निहित समाजोपयोगी तथ्यों को प्रकाशित किया जाए।
इन्ही उद्देश्यों को लेकर मैंने ‘विरासत-नाटक’ (हेरिटेज प्ले) नामक नाट्य-श्रृंखला का आरम्भ किया है, जिसमें ‘यक्षिणी’ जैसे नाटकों की प्रस्तुति की जानी है।

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दीदारगंज यक्षिणी : सम्पूर्ण-नारीत्व का प्रतीक”, ले० – सुनिता भारती, प्रज्ञा भारती 2018 [ Prajñā Bhāratī, Journal of K. P. Jayaswal Research Institute (Dept. of Edu. Govt. of Bihar), 2018] पर आधारित.


[1] वस्तुतः यह भारत ही नहीं वरन विश्व की प्रथम त्रिविमीय नारी मूर्ति है। माना जाता है कि पूर्ण रूप से गोलाई में बना हुआ स्त्री की मानवाकार प्राचीनतम मूर्ति एफ्रोडाइट ऑफ़ नाइडस (Aphrodite of Cnidus or Knidus) है, जो 350 ईसा पूर्व में ग्रीक मूर्तिकार प्राक्सीटेलिस (Praxiteles) द्वारा बनाया गया था। किन्तु इस मूर्ति का अस्तित्व नहीं है। ग्रीक और रोमन साहित्य में इसका वर्णन है, जिसके आधार पर रोमन कलाकारों द्वारा 150 से 100 ईसा पूर्व के बीच बनाई गयी प्रतिकृतियाँ जैसे कैपिटोलिन वीनस (Capitoline Venus,) वीनस पुडीका (Venus Pudica) आदि ही वर्तमान वर्तमान में मौजूद हैं। माना जाता है कि असली मूर्ति रोमन सम्राट नीरो के समय में नष्ट हो गयी थी। दूसरी प्रसिद्द स्त्री मूर्ति ‘वीनस डी’ मिलो’ (Venus de Milo) है, जिसे 130 से 100 ईसा पूर्व में अलेक्जेंद्रोस ऑफ़ अन्तिओक (Alexandros of Antioch) द्वारा बनाया हुआ माना जाता है। अतः वर्तमान में जिन मूर्तियों का अस्तित्व है, उनमें दीदारगंज फिगर प्राचीनतम साबित होता है, यदि इसका काल तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व है।

[2] Didarganj Image, Dr. D. B. Spooner, Didarganj Image: JBORS, 1919, Vol. V, part-1

[3] “…Thence it is alleged to have been removed by unauthorized persons to a spot some few hundred yards further up the river…” Didaganj Image now in Patna Museum, JBORS, 1919.

[4] डॉ. पृथ्वी कुमार अग्रवाल, भारतीय कला एवं वास्तु, 2014, पेज 120-21;

[5] Nihar Ranjan Ray, Maurya and Sunga Art, 1945, page – 52-53 ; J. N. Banerjee, Development of Hindu Iconography, 1941, page 107-8

[6] डॉ. विन्ध्येश्वरी प्रसाद सिंह, भारतीय कला को बिहार की देन, 1999, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पेज 68-69

[7] प्रशांत कुमार जायसवाल, यक्षी और स्त्री रत्न, भारतवाणी (श्रीमती इंदिरा गाँधी अभिनन्दन ग्रन्थ) वॉल्यूम-4, 1975

[8] सार्थवाह, डॉ. मोतीचंद्र, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्

[9] साहित्यों में भी इन अभिलक्षणों को आदर्श-नारी-कमनीयता का प्रतीक माना गया है: ‘पीन-पयोधर, दुबरी-गता; मेरू उपजल कनक-लता’।

[10] अतः, डॉ. प्रशांत कुमार जायसवाल का यह मत कि याक प्रतिमा ‘स्त्री-रत्न’ के है, ठीक लगता है।

[11] Richard H Davis : Lives of Indian Images

[12] यक्षिणी, लेखक अरविन्द कुमार, ऐतिहासिक तथ्य – डॉ. शंकर सुमन, संग्रहालयाध्यक्ष, पटना संग्रहालय, पटना; Sunita Publishing House, Patna, 2017

Heritage play YAKSHINI at IGNCA, New Delhi

अंतर्राष्ट्रीय संग्रहालय दिवस के अवसर पर नाटक यक्षिणी का इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र नई दिल्ली में मंचन

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India’s first play based on archaeological artifact YAKSHINI was staged at IGNCA New Delhi on the occasion of INTERNATIONAL MUSEUM DAY, May 18, 2019.

Sunita Bharti with Dr. Daya Prakash Sinha
Felicitation of Sunita Bharti after the show of YAKSHINI at IGCNA by Dr. D. P. Sinha, trustee and executive, IGCNA, New Delhi.

Sunita Bharti with Supriya Consul
Sunita Bharti shared stage with Ms Supriya Consul, Programme Director, Kaladarshan, IGNCA, New Delhi.

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Sunita Bharti : Felicitation at IGNCA
The director of play YAKSHINI & the heritage play series : Sunita Bharti

नाटकों में नित नए प्रयोग होते रहते हैं, किन्तु नाटकों का प्रयोग गैर-परंपरागत विधा में एक विरल घटना है। सुनिता भारती ने पहली बार इस देश में विरासतों को जन मानस तक लाने के लिए रंगमंच का प्रयोग किया है।

हेरिटेज-प्ले नामक नाटक श्रृंखला के माध्यम से सुनीता भारती ने पहली बार ‘सार्वजनिक संग्रहालय विज्ञान’ जैसे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में रंगमंच का रचनात्मक उपयोग किया है, जो केंद्र और राज्य सरकारों के विरासत संरक्षण अभियान का एक महत्वपूर्ण उपष्कर साबित होने के साथ ही TiE (Theatre in Education) को उसके प्रयोगात्मक शैशव काल से निकाल कर एक उपयोगी विधा के रूप में स्थापित करता है।

Jyotsna Sharma
Jyotsna Sharma Introducing the play YAKSHINI at IGNCA on International Museum Day (18 May 2019)

इस नाटक श्रृंखला का पहला नाटक है यक्षिणी जो विश्व-प्रसिद्द मौर्य कालीन कलाकृति ‘दीदारगंज चामर-धारिणी’ पर आधारित है। इस नाटक में इस भव्य कलाकृति के प्राप्त होने की कहानी और इससे सम्बंधित सभी शोधात्मक तथ्यों को मनोरंजनात्मक कथा के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो जन मानस में इस कलाकृति को सदा के लिए जीवंत बना देता है। यही कारण है कि भारत सरकार की कला-संस्कृति-विज्ञान-समन्वयक अध्ययन और शोध संस्थान, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (Indira Gandhi National Centre for the Arts, IGNCA), नई दिल्ली द्वारा, अंतर्राष्ट्रीय संग्रहालय दिवस (International Museum Day, 18 मई, 2019) के अवसर पर श्रीमती भारती द्वारा निर्देशित और भारत में किसी पुरातात्विक कलाकृति पर केन्द्रित प्रथम नाटक यक्षिणी का मंचन किया गया। इस मंचन के बाद नाटक यक्षिणी को उच्च शिक्षा (सार्वजनिक संग्रहालय विज्ञान) के क्षेत्र में प्रथम अकादमिक नाटक होने का गौरव प्राप्त हुआ है और पटना रंगमंच की प्रतिष्ठा बढ़ी है। इस नाटक का लेखन अरविन्द कुमार ने किया है तथा ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन डॉ. शंकर सुमन ने किया है, जो पटना संग्रहालय के संग्रहालयाध्यक्ष हैं।

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Yakshini artists and director with FACES-executive Jyotsna Shanrma (Deputy General Manager, Samsung Electronics) and Ravi Kumar, Co-Founder & CTO RupeeGO

नाटक की युवा निर्देशिका सुनिता भारती ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा में एम० ए० (नाट्यशास्त्र) की विद्यार्थी हैं। इन्होने बताया कि नाटक उनके लिए करियर नहीं बल्कि शौक और साधना है। रंगमंच की दुनिया में आने के बाद से ही सुनिता भारती परंपरा से हट कर नाटकों के कुछ ठोस उपयोग पर विचार करती रही हैं, जो अंततः यक्षिणी के माध्यम से शैक्षणिक नाटकों की श्रृंखला के रूप में फलीभूत हुई। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र द्वारा यक्षिणी नाटक का अंतर्राष्ट्रीय संग्रहालय दिवस के अवसर पर प्रदर्शन के लिए चुना जाना इनके रचनात्मक विचारों की प्रमाणिकता को सिद्ध करता है। इनका कहना है कि यक्षिणी की सफलता उनकी व्यक्तिगत सफलता नहीं बल्कि उनके टीम, लेखक और शोधकर्ता की सामूहिक सफलता है, और दरअसल यह पटना रंगमंच की सफलता है। विरासत संरक्षण और शिक्षण के लिए नाटक के प्रयोग के पीछे वे यूनानी दार्शनिक सिसरो (पहली सदी ईसा पूर्व) के कथन को अपनी प्रेरणा मानती हैं, जिसमें उसने कहा है कि “जो आदमी अपने अतीत से परिचित नहीं वह आजन्म शिशु है”।

प्रसिद्द कला इतिहासकार डॉ. चितरंजन प्रसाद सिन्हा (पूर्व निदेशक, कासी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान) के अनुसार विरासतों के संरक्षण का इससे अधिक प्रभावशाली और कोई उपाय नहीं कि आम जनता के ह्रदय में उन्हें स्थापित कर दिया जाय। हम अपने विरासतों को जितना अधिक जानते है, उतना ही अधिक उनसे प्रेम करते हैं, और उनका वास्तविक मूल्य और महत्व को समझ कर उनकी सुरक्षा की परवाह करते हैं। हेरिटेज प्ले श्रृंखला के नाटकों के माध्यम से सुनिता भारती यही कर रहीं हैं। उन्होंने नाटकों के प्रचलित विषय (समसामयिक समस्या, ऐतिहासिक-पौराणिक घटनाओं और राजनैतिक समस्या इत्यादि) से अलग, पुरातात्विक विरासतों से सम्बंधित तथ्यों को नाटक का विषय वस्तु बनाया है। उनके इस प्रयोग से रंगमंच का एक नया उपयोगी स्वरुप उभर कर सामने आया है। हम अगर एक पुरावशेष की कहानी दर्शकों को दिखाते हैं, तो दुसरे पुरावशेषों के प्रति सहज ही उसके मन में जिज्ञासा उठेगी और वे विरासतों को ज्यादा से जयादा जानने की कोशिश करेंगे। इस प्रकार की जागृति विरासत संरक्षण में आने वाली कई दिक्कतों को दूर करेगा।

प्रसिद्द इतिहासविद डॉ. उमेशचंद्र द्विवेदी (पूर्व निदेशक, संग्रहालय, बिहार) ने बताया कि संग्रहालय विज्ञान के पाठ्यक्रम में एक विषय होता है, सार्वजनिक संग्रहालय विज्ञान जिसमें हम छात्रों को यह पढ़ाते हैं कि संग्रहालयों के पुरावशेषों को किस प्रकार जनता तक ले जाना है? इसमें दृश्य-श्रव्य माध्यमों से संग्रहालय संकलन के बारे में जन-साधारण को शिक्षित करने की तकनीक पढ़ायी जाती है। इस सन्दर्भ में नाटक यक्षिणी एक बहुत ही सुन्दर उदहारण है, जिसमें जनता को नाटक के माध्यम से पुरावशेषों से सम्बंधित तथ्यों को बताया गया है। निश्चय ही नाटक में देखी गई बातें अन्य माध्यमों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली हुआ करती हैं।

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Gunjan Kumar (the co-protagonist of play YAKSHINI) was felicitated by Dr. D. P. Sharma at IGNCA

पटना संग्रहालय के अपर निदेशक डॉ. विमल तिवारी, संग्रहालयाध्यक्ष डॉ. शंकर सुमन, बुद्ध-स्मृति संग्रहालय के डॉ. नीतू तिवारी एवं गंगा देवी महिला महाविद्यालय के प्रोफ़ेसर और लेखिका डॉ. किरण कुमारी यक्षिणी नाटक को एक अत्यंत उपयोगी नाट्य परंपरा का शुरुआत मानते हैं। इन विद्वानों के अनुसार पुरातात्विक धरोहर पुराविदों की प्रतिभा और श्रम-साधना के परिणाम हुआ करते हैं जिनके आधार पर इतिहासकार अतीत की अज्ञात कड़ियों को जोड़ कर एक सतत इतिहास का निर्माण करते हैं। किन्तु ये संग्रहालयों के चहारदीवारी के भीतर सीमित रह कर एक अल्पसंख्य प्रबुद्ध समुदाय के मानस को ही प्रभावित कर पाते हैं, जन-मानस को तरंगित नहीं कर पाते। सुनिता भारती ने नाटक यक्षिणी (और इसके बाद आने वाले नाटकों) के माध्यम से इतिहास और पुरातत्व को संग्रहालयों की चाहरदीवारी के बाहर, समाज के हर कोने में पहुंचाने का काम किया है, जो स्तुत्य है।

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Dr. Shankar Suman, Dr. Neetu Tiwari, Dr. Kiran Kumari, Dr. C. P. Sinha, Dr. U. C. Dwivedi and others with artists and director of the play Yakshini at press-conference.

हेरिटेज प्ले श्रृंखला के लेखक अरविन्द कुमार ने आगामी नाटक अस्थि-कलश के बताते हुए कहा कि यह नाटक 1956 में वैशाली से प्राप्त महात्मा बुद्ध के अवशेष पर आधारित होगा और इस नाटक के माध्यम से पुरातत्व विज्ञान की सामान्य जानकारी दर्शकों को प्राप्त होगी।

नाटकों की प्रस्तुति फेसेस, संस्था द्वारा किया जाता है तथा इन नाटकों की तैयारी और प्रदर्शन में बिहार पुराविद परिषद् सहयोग करती है।

YAKSHINI

Images of the show at IGNCA 

Introduction & Objective

The outcome of dedicated labour and talent of our archaeologists and historians in reconstructing our past must not be confined within the circle of intellectual minority, but must reach every nook and corner of society. Therefore, the existence of archaeological artefacts and finds must transcend beyond the walls of the museums and resonate in the conscience of common people. If it so happens, our heritage shall be preserved in the hearts of the people, beyond the confines of museums and historical sites.

With this very objective, Mrs. Sunita Bharti, the young theatre personality from Patna, has started the Heritage Series of Plays; the first production being Yakshini, based on the Mauryan sculpture Didarganj Chawry Bearer Female Figure and the upcoming one is Ashthi Kalash, based on the excavation of the relics of Buddha at Vaishali.

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Makeup artist Anju Kumari of team Yakshini

She believes that message and information delivered through plays have deeper impact on public conscience compared to those conveyed through cinema and videos. Therefore, Mrs. Bharti has chosen her discipline, the theatre, to make people aware of the museum-collections by virtually taking them directly to the people, showcasing the stories of their excavation and related information. Through the stage shows of Yakshini at Patna, she has proved that people are drawn towards the museums with enhanced interest in antiquities; their eyes searching for another artefact having another story hidden within. This is a fact that more we know about antiquities, more we respect them and more are we keen for their conservation.

We know that the role of museums is not limited to collecting and conserving things, but also to educate people about them. In this regard, Yakshini is the first theatrical piece accountable in the subject of Public Museology. Staging of such plays in public is very much relevant and beneficial on the occasions like World Heritage Day, International Museum Day, International Archaeology Day, Museum Week and others.

The Story

First part of the play Yakshini describes the documented story of accidental excavation of Didarganj Yakshini by the villagers of Didarganj, Patna (Bihar) on October 18, 1917, followed by its retrieval in to the newly built Patna Museum through a well woven entertaining story in which most of the characters like Prof. Jogindar Nath Samadar, E. H. C. Walsh, Dr. D. B. Spooner and Ghulam Rasul are real.

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Director Sunita Bharti with Dr. Sanjeev Kumar Singh, Director, Publication, National Museum New Delhi and Programme Director, Kaladarshan, IGNCA Ms Supriya Consul after the show.

Documents like acquisition paper of Patna Museum, confidential report of inspector of Malsalami Thana, Patna and the report of Dr. D. B. Spooner in the Journal of Bihar and Orissa Research Society, 1919, mention the involvement of a student of Prof. Samadar of Patna College, a washer-woman and some villagers of Tajpur-Rasulpur of Didarganj, but they are people with unknown identity. The writer has taken the liberty to call them by imaginary names in the story.

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A scene from Yakshini fabricated in 3rd century BCE

The story is not a mere repetition of the events in 1917 but gives all the information related to this icon as explicitly as described by a museum guide. The play presents the opinions and conclusions about the time, aesthetic values, objective of sculpting and other attributes, given so far, by eminent workers, scholars and archaeologists. Through this story creators of the play have pointed out the elements of uniqueness in this figure, viz., the depiction of its smile responding according to the viewer’s own emotion. They are of the opinion that a scientific study of this art may reveal new features adding to the glory of this magnificent legendary icon. Moreover, this play highlights the cult-value of the sculpture in popular tradition and belief.

Part 2 of this play is an imaginary story depicting the circumstances leading to sculpting of this figure in third century BC. The story gives an idea of ancient Pataliputra and emphasizes that the city was also the manufacturing centre of Mauryan polished stone sculptures. But the main objective of fabrication of this story is to make Mauryan Era, to which the sculpture belongs, perceivable to the public, so as to attach the audiences with this figure emotionally, without harming the established facts related to the latter.

Details

Director: Sunita Bharti

Writer: Arvind Kumar

Research: Dr. Shankar Suman, Curator, Patna Museum, Patna.

Artists

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Yakshini

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The first Hindi play in Public Museology & Theatre Directed and Acted by Sunita Bharti.

A century ago, on 18th of October 1917, on the south bank of river Ganges near Didarganj, Patna; a female figure dating back to the Mauryan Period (300BC) was accidentally unearthed. This 2000 years old ‘nymph of stone’ surpassed the charm of the Aphrodite; the mesmerizing aura radiating out of this bizarre beauty blurred the smile of Mona Lisa. Neither the villagers who dug out the figure, nor its mentors who retrieved the figure into the newly established Patna Museum, then, had imagined that the icon was going to be a legend in archaeology and art-history.
Today we know this legendry beauty carved in Chunar sand-stone as ‘Didarganj Chowry Bearer Female Figure’ or (popularly) ‘Didarganj Yakshini’, exhibited in Patna Museum, Patna. This is the first life sized female statue sculpted in Indian archaeological time line, dating back to 300 BC.

Introduction of the Play

Yakshini” is the first play in Hindi literature written and staged on this world famous legendary icon and the first example of application of theatre in Public Museology.
The play describes the documented story of excavation and retrieval of the “Didarganj Yakshini” in 1917, as well as the historical, aesthetic, and archaeological features and facts related to this figure through a well-woven entertaining story that leaves the audience spell-bound, in trance.
In addition, this play explores the possible objective and circumstances of sculpting of this masterpiece in 300 BC as well as its ‘cult value’ for the rural folk who accidently found the statue on the south bank of river Ganges, in Didarganj, Patna, in 1917.

‘Yakshini’ is a research based experimental theatrical project presenting a ‘charming and captivating story, pregnant with facts’; and may be categorized as an ‘info-drama’.
Design

The play YAKSHINI is a complete drama and the facts and information are delivered to the audience through the dialogues of the characters. Many characters in this play are real, well documented in the annals and chronicles and a few are fictitious but quite relevant to the context and historical theme, required to construct a complete story in historical background.

The play has been designed to comply with the theatrical norms having dramatic fluidity and providing a wide scope for creative and technical applications in theatrical art.Structure & Story

This play consists of two acts.
In act-one, story of its excavation and retrieval has been fabricated in an entertaining manner around the documented facts with all real characters of the episode in 1917. All physical, historic, aesthetic, and archeological characters of the icon have been explained in this act through the dialogues of the characters, which are easily graspable and interesting so that the audiences learn everything about this sculpture while entertaining themselves.
A special consideration about the ‘public interpretation’ of this artwork at the time when sculpture was unearthed has been made in this play. According to Richard H. Davis, there is always a “cult value” of images in a particular culture or community. But Dr. D. B. Spooner, who played an important role in retrieval of the image to the Patna Museum and who wrote a report on Didarganj Image in the Journal of Bihar and Orissa Research Society in 1919, considered only the “exhibition value” of the icon and didn’t enquire what the locals opined about the image. If they were worshiping the icon, what did they think of this icon? In act-one of this play, the writer has made a logical conjecture of what the villagers would have thought of this image on the basis of traditional belief and cult-practices.

In act-two of the play, a fictitious story portraying a sculptor, a model and the circumstances leading to the sculpting of this masterpiece in 300 BC has been fabricated within the limits of the historical facts and the epoch of time. This story adds to the creative imagination of audience/visitor to realize the epoch of the time and historicity of this sculpture.
Objective

Love and respect for the antiquities, monuments and heritage are hallmarks of a civilized and intellectually developed society. We must create awareness and curiosity for ancient monuments, artifacts and antiquities among the masses to maintain and preserve our heritages. Didarganj Yakshini is a figure serving as a watermark for the aesthetic sense and technical excellence of ancient Indian iconology. The play based on its excavation and sculpting is a new experiment in theatre, analogous to documentary infotainments in cinema; and it will serve as a strong tool for mass-education and mass-motivation.

To a historian or an archaeologist, an artifact speaks a lot about the custom, tradition, socio-economic condition, trade, costume, belief, and even about the environmental and ecological conditions of the era it belongs. But a common man cannot decipher all these facts by mere looking at the artifact in museum and reading the tag on it. If a museum guide describes the facts to a visitor, it is not so interesting as to captivate the visitor and doesn’t arouse a curiosity to know more, and people just remain ignorant of many things of our past they deserve to know.
Keeping the above difficulty in mind the play Yakshini has been prepared to educate people about the mystical past of our land thus making them aware of our cultural heritage, their importance and need to conserve them, a subject undertaken by ‘public museology’.

In the Offing

Yakshini is a pioneer work in this field and a series of such plays are being prepared based on important museum collections in Bihar and other states of India which reveal some unknown chapters of Indian culture, customs, practices, social conditions and philosophical ideas in the epochs of time concerned. In each of the plays, all the information related to the central subject would be embedded in an interesting story fabricated within the limit of historical facts and archaeological findings.
These plays would be the pioneer works in theatrical arena of India based on extensive academic research and exploration.

This play Yakshini (and the siblings) educates the audience, creates awareness about our heritages and their importance, inspires people to explore and know more about other such heritages, and is capable of pulling a large section of audience/public to museums with enhanced interest in antiquities. Therefore, staging of this play will prove to be a form of ‘Art and Antiquity Conservation’.

Triler of the play:
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चामर-ग्राहिणी शताब्दी वर्ष आलेख प्रतियोगिता के अतिथि

Chowrie Bearer Centenary Open Letter Competition

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कला-संस्कृति एवं युवा विभाग (संग्रहालय निदेशालय), पटना-संग्रहालय, पटना,  बिहार  सरकार,  एवं फाउंडेशन फॉर आर्ट, कल्चर, एथिक्स एंड साइंस (FACES), पटना  के संयुक्त तत्वावधान में

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चामर-ग्राहिणी यक्षिणी शताब्दी-वर्ष ओपन-लेटर (आलेख)  प्रतियोगिता 

दिनांक 23 नवम्बर 2016

दिनांक 23 /11 / 2016 को पटना  संग्रहालय, बुद्ध मार्ग, पटना के सभागार में कला-संस्कृति एवं युवा विभाग (संग्रहालय निदेशालय), पटना-संग्रहालय, पटना,  बिहार  सरकार एवं फाउंडेशन फॉर आर्ट, कल्चर, एथिक्स एंड साइंस (FACES), पटना के संयुक्त तत्वावधान में  ‘चामर-ग्राहिणी यक्षिणी’ शताब्दी-वर्ष “ओपन-लेटर” (आलेख)  प्रतियोगिता का आयोजन किया गया।

“चामर-ग्राहिणी यक्षिणी” (दीदारगंज-यक्षिणी) एक विश्व-विख्यात कलाकृति है, जो 18 अक्टूबर 1917 को पटना के दीदारगंज में प्राप्त हुई थी और वर्तमान में पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। ईसापूर्व तीसरी शताब्दी की यह प्रस्तर कलाकृति अपनी ऐतिहासिकता, कलात्मकता और निर्माण-तकनीक के लिए विश्व-प्रसिद्द है। वर्तमान वर्ष 2016 इस अद्भुत ऐतिहासिक कलाकृति के प्राप्ति का शताब्दी वर्ष है, जिसे बिहार सरकार ने वर्ष 2016 -17 को कला-वर्ष के रूप में मानाने का निर्णय लिया है।

इस प्रतियोगिता में छात्रों ने चामर-ग्राहिणी यक्षिणी : परिचय, ऐतिहासिकता और कला-पक्ष पर इतिहासज्ञों की एक निर्णायक मंडल के समक्ष अपने आलेख प्रस्तुत किये।  कार्यक्रम 11 बजे दिन से शुरू हो कर शाम 4 बजे तक चला।

प्रतियोगिता में विभिन्न विद्यालयों से करीब 50 छात्रों और उनके शिक्षकों ने भाग लिया।

निर्णायक मंडल के द्वारा तीन छात्रों को उनके सर्वोत्तम आलेखों के लिए पुरस्कृत किया गया:

प्रथम पुरस्कार: अमृता भरद्वाज, कक्षा 12,  विद्यालय : कार्मेल उच्च विद्यालय, बेली रोड, पटना

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द्वितीय पुरस्कार: शालिनी कुमारी, कक्षा 10,  विद्यालय : आर्मी पब्लिक स्कूल, दानापुर, पटना.

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तृतीय पुरस्कार: हर्षा , कक्षा  10 विद्यालय: कार्मेल  उच्च विद्यालय, बेली रोड, पटना .

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पांच छात्रों को सांत्वना पुरस्कार दिया गया। सांत्वना पुरस्कार पाने वाले छात्र हैं:

  1. हर्षित पाठक (कक्षा: 11)  विद्यालय पू. म. रेलवे  विद्यालय, खगौल, पटना
  2. कात्या प्रसाद (कक्षा: 11)  विद्यालय डी. ए. व़ी. पब्लिक स्कूल, बी. एस. इ. बी. कोलोनी, पटना
  3. अपर्णा शंकर (कक्षा: 10)   विद्यालय डी. ए. व़ी. पब्लिक स्कूल, बी. एस. इ. बी. कोलोनी, पटना
  4. आयुषी सिंह (कक्षा: 11)  विद्यालय: डी. ए. व़ी. पब्लिक स्कूल, बी. एस. इ. बी. कोलोनी, पटना
  5. रुकसार फातिमा (कक्षा: 12), विद्यालय: गंगा देवी कालेज पटना.

 मुख्य अतिथि :

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डॉ. व़ी. के. जमुआर

(विभागाध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग, पटना विश्वविद्यालय)

निर्णायक मंडल के सदस्य:

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(दायें से) डॉ. चितरंजन प्रसाद सिन्हा (पूर्व निदेशक, काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, पटना),  डॉ. उमेश चंद द्विवेदी (पूर्व निदेशक, संग्रहालय, बिहार) एवं डॉ. शिव कुमार मिश्र, (शोध सहायक, पटना संग्रहालय, पटना  बिहार).

पुरस्कृत छात्रों को ट्राफी और प्रमाण पत्र दिए गए तथा भाग लेने वाले सभी छात्रों को सहभागिता का प्रमाण-पत्र दिया गया।

मुख्य अतिथि और विद्वान् डॉ. व़ी. के. जमुआर (विभागाध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग, पटना विश्वविद्यालय) ने छात्रों को पुरस्कार वितरित किया।

कार्यक्रम का संचालन श्री अरविन्द कुमार, शुभम सिंह, तथा पुष्कर प्रिय  ने किया।

उप संग्रहलाय्ध्यक्ष डॉ. शंकर सुमन ने  ने धन्यवाद् ज्ञापन किया।

FACES की सचिव (और अभिनेत्री) श्रीमती सुनीता भारती मुख्य अतिथि का स्वागत किया.

श्रीमती संध्या और सुश्री रीता ने निर्णायक समिति के सदय विद्वानों का स्वागत किया।

डॉ. विजय कुमार, संग्रहलायध्य्क्ष, पटना संग्रहालय पटना, डॉ. शंकर सुमन, उप-संग्रहलाय्ध्यक्ष  पटना संग्रहालय पटना एवं निर्णायक मंडल के सदस्यों ने अपने विचार व्यक्त किये।

FACES की सचिव, (और अभिनेत्री) श्रीमती सुनीता भारती ने छात्रों में अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के प्रति अभिरूचि पैदा करने हेतु संस्था के द्वारा भविष्य में भी लगातार इस तरह के कार्यक्रमों के आयोजन की घोषणा की।

श्रीमती सुनीता भारती ने छात्रों के हित के लिए FACES द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रम “विग्यानोदय” के बारे में भी जानकारी दी जिसके तहत IIT और Medical प्रवेश परीक्षा की सफल तैयारी के लिए छात्रों को निःशुल्क मार्गदर्शन प्रदान किया जाता है।

विजेताओं का ग्रुप फोटो

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On 17th of Septenber 2016 play “Parinda Ud Gya” was staged at Kalidas Rangalay Patna. I played dual character in this play, the main challenging character “Kamla” and the other of “Naina”. The character of “Kamla” portrays a bold and free woman, a kept of a ‘bad-man’. She is aware of her rights and ready to exploit the maximum out of a greedy and cruel man who exploited his humble wife to death.14362538_1048303685284530_5093689015489029930_o
Sunita Bharti as kamla

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On 19th of September Teejan Bai visisted Patna to receive an award conferred to her by Nirman Kala Manch Patna. She performed for 45 minutes in the packed auditorium of Kalidas Rangalay on this occasion. Next day DD Patna invited her in the studio for an interview. I want to congratulate Patna Doordarshan for this, because the interview was a precious piece of lesion for the aspiring artists.

Despite a long list of Awards and Honors in her credit and a world-wide fame very artist long for, her humble and ‘down to earth’ character speaks more than a life-long session on ‘how to become successful’.

In her words “ प्रसिद्धि और ख़ुशी जब मिलती है तो ख़ुशी में ज्यादा डूबना भी नहीं चाहिए. क्योकि अपनी ख़ुशी में ज्यादा डूबना भी हानिकारक है. हमें तो ख़ुशी है, पर लोगन को ख़ुशी हो. लोगों की ही ख़ुशी में कलाकार की ख़ुशी है.”

(When you get name and fame, pleasure comes to you. But one shouldn’t get lost in this pleasure. Because getting absorbed in the pleasure is harmful. One should think about the pleasure of the masses. An artist’s greatest pleasure is the pleasure of his/her audience.)

She is literally illiterate, but her thoughts are so philosophically sound and a reality of the ground that seldom comes from the so called scholars.

This single thought of hers explains why Teejan Bai has soared up the sky in her life against all odds. Will our budding artists learn from her, or continue dreaming of a life of luxury without being creative in their arts?

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Sunita Bharti With Dr. Teejan Bai

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Sunita Bharti With Dr. Teejan Bai at Kalidas Rangalay Patna

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Sinita Bharti : A lovely time with Dr. Teejan Bai

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Teejan Bai & Sunita Bharti Posing for Photo

Sunita Bharti With Dr. Teejan Bai