प्रगतिवादी रंगमंच और वामपंथी नाटकों में स्त्री-चित्रण

सुनिता भारती

एक प्रगतिवादी नाटक देखने के बाद दर्शकों को समझ में नहीं आता कि उन्होंने क्या देखा!

अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने भारतीय विद्वानों की ही एक भारत-विरोधी लॉबी का निर्माण किया था, जिसका काम था हिन्दू समाज को नीचा दिखाना; ताकि यह साबित हो सके कि जहाँ हजार तरह की अपरिष्कृत परम्पराएँ विद्यमान हैं, वह भारतीय सभ्यता परिष्कृत यूरोपीय सभ्यता का गुरु नहीं हो सकता। यह अभियान आज तक जारी है, जिसमें अब यूरोपीय साम्राज्यवादी बुद्धिजीवियों के साथ अमेरिकी भी शामिल हो चुके हैं। भारत में इस लॉबी के सदस्य हिन्दू संस्कृति को नीचा दिखाने वाले साहित्य और शोध पत्रों का प्रकाशन कर, पश्चिमी नियंत्रकों से इनाम और पैसा पाते हैं।

आजादी के पहले से ही भारतीय मार्क्सवादी इस लॉबी के सदस्य रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह रहा कि स्वतंत्र भारत के कुछ सरकारों ने इस लॉबी को शिक्षा पर अपना प्रभुत्व ज़माने की छूट दे दी। जिसका परिणाम यह हुआ कि विद्यालय स्तर पर भारत के इतिहास को विकृत कर दिया गया। इस लॉबी के प्रमुख नाम हैं: इरफ़ान हबीब, आर. एस. शर्मा और रोमिला थापर। धर्म निरपेक्षता की आड़ में इन लोगों ने भारतीय संस्कृति का जितना बड़ा अपमान और क्षति किया है वह मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा भारतीय संस्कृति के विध्वंस-अभियान से हजार गुणा अधिक घातक है, क्योंकि आगे आने वाली पीढ़ियों के दिल दिमाग में उनकी अपनी ही संस्कृति के प्रति विद्वेष भरने काम किया गया है।

चिंताजनक बात यह है कि वर्तमान सरकारी तंत्र भी अभी तक इस सांस्कृतिक क्षय की रोकथाम या उसकी क्षति-पूर्ती के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा सका है, और हमारे बच्चे वही इतिहास पढ़ रहे हैं, जो भारत विरोधी इतिहासकार पढ़ाना चाहते थे।

भारत में भारतीय-संस्कृति-विरोधी लॉबी का एक प्रमुख शाखा है – मार्क्सवादी रंगमंच; जो ‘प्रगतिवादी रंगमंच’ के छद्म नाम से सक्रिय है। समृद्ध भारतीय नाट्य परंपरा के क्षरण में इस प्रगतिवादी रंगमंच का बहुत बड़ा हाथ है। इन्होने नाटकों को राजनैतिक प्रचार का साधन बना कर – एक ‘तमाशा’ के रूप में परिवर्तित कर दिया है। इस लॉबी ने प्रदर्श कलाओं के प्रणेता भरत-मुनि को गौण कर के भारत में मार्क्सवादी ब्रेख्त को महान बताने का अभियान चलाया, जो आज भी जारी है। आप यदि ब्रेख्त के बारे में जानेंगे तो ज्ञात होगा कि उसकी एकमात्र उपलब्धि यही है, कि उसने, साहित्य और कला से नाटक का तलाक करवा कर उसे राजनीति का रखैल बना दिया[i]

भारत की परंपरागत नाट्य-शैली को तथाकथित प्रगतिवादियों ने ‘लोक-नाटक’ का नाम दे कर, उसे नीचे दर्जे का बताया; और अपने नाटकों को ‘प्रगतिवादी’। प्रश्न यह है, कि नाटक तो हमेशा आम जनता, यानी लोक के लिए और लोक के द्वारा ही किया जाता है[ii]। किन्तु प्रगतिवादी सिर्फ परंपरागत नाटकों को ही लोक-नाटक बता रहे है, तो फिर प्रगतिवादी नाटक को ‘परलोक-नाटक’ कहा जाना चाहिए!

….और वास्तव में लगता भी कुछ ऐसा ही है। प्रगतिवादी बनाम मार्क्सवादी नाटक परलोक-नाटक ही होता है, क्योकि उसमें झूठ, अतिशयोक्ति और पाखण्ड के आलावा कुछ नहीं होता। वे उसी चीज को मुद्दा बनाते हैं, जो मुद्दा होता ही नहीं – उद्देश्य होता है – सिर्फ परोक्ष या अपरोक्ष रूप से हिन्दू संस्कृति की निंदा करना। भारतीय संकृति में इन कुचेष्टाओं को ‘अधोगतिवादी’ क्रिया-कलाप कहा जाता है।

भारतीय नाटक पर मार्क्सवादियों के प्रभाव का एक और हानिकारक परिणाम रहा है; वह यह कि, एक दो शहरों को छोड़ कर, भारत में नाटक का व्यवसायीकरण नहीं हो सका। नाटक के अभिनेता और कलाकार आज अपनी कला दिखा भी पाते हैं तो सरकारी अनुदान के बल पर ही, अपनी कला से कमाने की बात तो दूर है। गुण हैं, किन्तु गुण-ग्राहक नहीं हैं।

पटना में तो स्थिति और भी बद्त्तर है। नाटक देखने वाले दर्शक हैं ही नहीं। नाटक के दर्शक रंगकर्मी ही होते हैं। वे भी दूसरे रंगकर्मियों के नाटक देखना नहीं चाहते। कसम दिला-दिला कर उन्हें बुलाया जाता है। ‘आपका पूरा नाटक हम देखे थे, आपको आना होगा’ – ऐसा कह कर दर्शक बटोरना पड़ता है, ताकि नाटक के रिकॉर्डिंग में दर्शक दिखें जिसे संस्कृति मंत्रालय भेजा जा सके। तो, आमंत्रित रंगकर्मी को भी अपना दर्शक बनाए रखने के लिए रंगालय जाना पड़ता है। वह प्रेक्षागृह में न जा कर पहले नेपथ्य में जाता है और आयोजक से मिलता है, ताकि आयोजक अथवा निर्देशक को मालूम पड़ जाए कि फलां आये थे। फिर वह प्रेक्षागृह में आता है, और फ़िराक में रहता है कि कब निकलें। जिन्हें कोई काम नहीं होता वे पूरा नाटक देख लेते हैं (या फिर हाल में सो लेते हैं) और नेताओं की तरह कुछ जुमले नाटक की प्रशस्ति में  निर्देशक या कलाकार को सुना देते हैं, जिसमें सर्वाधिक उपयोग में आने वाला जुमला है- ‘अरे आप तो छा गए‘’।

सवाल है, दर्शक क्यों नहीं हैं? – वह इसलिए, कि दर्शकों को पूर्वाग्रह ग्रस्त और फ़ालतू की चीजें परोसी जा रही हैं जिनका कि आम जीवन से किसी भी प्रकार का निकट सम्बन्ध नहीं है। दर्शक मनोरंजन के लिए पैसा खर्च कर सकते हैं, समस्या सुनने और राजनैतिक प्रचार देखने के लिए नहीं। एक प्रगतिवादी नाटक देखने के बाद दर्शकों को समझ में नहीं आता कि उन्होंने क्या देखा? क्योंकि वे काल्पनिक समस्याएं दिखाते हैं, और उसी की पुनरावृत्ति करते रहते हैं। दर्शक न तो वह स्थिति अपने परिवेश में देखता है, जिससे उसमें किसी भावना-विशेष का संचार हो सके, और न ही उन्हें मनोरंजन मिलता है। चूँकि भारतीय रंगमंच में आजादी के समय से ही इन प्रगतिवादियों का प्रभुत्व रहा है, इनके खेमा से बाहर के लोग भी इन्ही का नक़ल कर के, इन्ही की परंपरा पर चल पड़ते हैं और दर्शकों को लुभा नहीं पाते। अधिकांश प्रगतिवादी नाटक बहुसंख्यक दर्शकों की आस्था और धर्म पर आघात करने वाले होते है;  ऐसे में नाटकों का व्यवसायीकरण संभव नहीं।

हिन्दू संस्कृति में नारी-उत्पीड़न एक ऐसा विषय है जिस पर अनेकों प्रगतिवादी नाटक लिखे गए हैं, और उनकी पुनरावृत्ति की जाती रही है। इन नाटकों में दिखाया जाता है कि आदि काल से हिन्दू संस्कृति में नारियों पर अत्याचार होता रहा है। जबकि सत्य और तथ्य यह है कि पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति ही एकमात्र संस्कृति है, जिसमें नारी की पूजा होती है[iii]। वैदिक संस्कृति एकमात्र वह संस्कृति रही है, जहाँ पुत्र और पुत्रियों में कोई भेद नहीं था। दोनों को ही सामान रूप से शिक्षित किया जाता था; दोनों का उपनयन संस्कार होता था; दोनों ही यज्ञोपवित धारण करते थे, और समान रूप से यज्ञ और अनुष्ठान करते थे। बहुत सारे ऐसे भी अनुष्ठान थे जो केवल स्त्रियाँ ही करती थी।  विवाहित युगल के लिए यज्ञ में या किसी बलि-अनुष्ठान में पति पत्नी दोनों का भाग लेना अनिवार्य था, जो आज तक जारी है। यदि पति किसी कार्य में व्यस्त तो पत्नी अकेले ही धार्मिक अनुष्ठान समपन्न कराती थी[iv]

गृहस्थ जब यात्रा से घर में आता था तो बेटों और बेटियों के कल्याण के लिए समान प्रार्थना करता था[v]। इस संस्कृति में विद्वान् पुत्री की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान किये जाते थे।[vi] इस संस्कृति में एक ऐसा समय भी रहा है, जब समाज मातृसत्तात्मक था। सिन्धु घाटी सभ्यता के उत्खनन से प्राप्त सामूहिक शवगृहों के कंकालों में स्त्रियों के DNA आपस में निकट-सम्बन्धी होने, और पुरुषों के दूर संबंधी होने का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। इससे यह पता चलता है कि विवाह के बाद पुरुष, स्त्री के घर में रहा करते होंगे[vii]। सिन्धु घाटी के उत्खनन में मातृ देवियों की मूर्तियाँ जिस बहुतायत में मिली हैं, अन्य प्राचीन सभ्यताओं में नहीं मिलतीं। ऋग्वेद के सूत्रों की रचयिता स्त्रियाँ भी हैं, जिन्हें ब्रह्मवादिनी[viii] कहा जाता था। उनमें गोषा, अपाला, लोपमुद्रा, मैत्रेयी, गार्गी, इन्द्राणी, मुद्गालिनी एवं विश्वरा प्रमुख हैं। ऋग्वेद के मंडल 1 के स्तोत्र 179 में छः सूक्त अकेले लोपमुद्रा के द्वारा रचित हैं। ऋग्वेद में यह वर्णन है कि घर-गृहस्थी, आर्थिक और सामजिक क्रिया-कलापों में स्त्रियाँ, पुरुषों के समान स्वतंत्र थीं और कोई भी व्यवसाय चुन सकती थी। यहाँ तक कि योद्धा के रूप में भी स्वयं को स्थापित कर सकती थीं। ऋग्वेद में शशियानी, वध्रिमती, विश्पाला, दानु और सरमा नाम की वीरांगनाओं की चर्चा है। जाहिर है युद्ध-कर्म में और भी कम प्रसिद्द स्त्रियों की भागीदारी अवश्य रही होगी[ix]।  वैदिक काल में शिक्षण, नृत्य और संगीत में स्त्रियों का प्रमुख योगदान हुआ करता था[x]।  संपत्ति में पति और पत्नी का सामान अधिकार हुआ करता था[xi]। कन्याओं को अपना वर स्वयं चुनने का अधिकार था[xii]

वैदिक काल से लेकर मौर्य काल तक, भारत में स्त्रियाँ शिक्षा, संपत्ति, धर्म, समाज और यौनाचार में पुरुषों के सामान एवं स्वतंत्र थी। महाभारत में सत्यवती, कुंती, गांधारी, माद्री, द्रौपदी, गंगा आदि के अलावे कई कहानियां हैं जिसमें देवयानी, शर्मिष्ठा, माधवी, उलूपी, चित्रांगदा आदि स्त्री चरित्रों का चित्रण किया गया है। सभी कहानियों से एक बात स्पष्ट है, कि वैदिक और महाकाव्य काल में स्त्रियाँ यौन-आचार और व्यहार में पूर्ण रूपेण स्वतंत्र थी। विवाह-पूर्व यौन सम्बन्ध अथवा बहु-पतित्व, न तो प्रतिबंधित था, न ही निंदनीय। बल्कि इसके विपरीत, विवाहेत्तर संबंधो से उत्पन्न पुत्र और पुत्रियाँ भी संपत्ति के वैधानिक उत्तराधिकारी होते थे। आदि से अंत तक महाभारत में इस प्रकार के उदाहरण वर्तमान हैं। ययाति और शर्मिष्ठा के विवाहेत्तर संबंधो से उत्पन्न पुत्र पुरु बाद में हस्तिनापुर के राज्य का अधिकारी बने। महाभारत में देवयानी एक ऐसी उद्दात स्त्री चरित्र है, जिसे आज की भाषा में हम लाड़-प्यार से बिगड़ी हुई लड़की कह सकते हैं। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि प्राचीन भारत में स्त्रियाँ कभी भी दबी-कुचली नहीं थी, वरन इसके ठीक विपरीत उद्दात, स्वतंत्र और स्वछन्द  रही हैं।

किन्तु मार्क्सवादी नाटककारों ने इन पौराणिक चरित्रों को तोड़ मरोड़ कर, अपनी कल्पना से उन्हें विकृत रूप में प्रस्तुत किया है। इसका जीवंत उदाहरण भीष्म साहनी का नाटक माधवी है। यदि महाभारत में माधवी की मूल कहानी को पढ़ा जाए तो नाटक ‘माधवी’ का उद्देश्य स्पष्ट हो जाएगा कि इसमें माधवी के लिए सहानुभूति के छद्म-वेश में हिन्दू धर्म को अपमानित और विकृत रूप में प्रस्तुत करने की मंशा है। यही कारण है कि भारतीय विद्वान, यहाँ के विद्यार्थियों को हमेशा ही मूल श्रोत को पढ़ने की सलाह देते रहे हैं। इस सन्दर्भ में नव नालंदा महाविहार के कुलपति डॉ. वैद्यनाथ लाभ का यह व्याख्यान-अंश समीचीन है, जिसमें उन्होंने कहा है कि शोधार्थी और विद्यार्थी मूल श्रोतों को पढ़ें, द्वितीयक श्रोतों पर भरोसा कम करें।[xiii]

माधवी की कहानी महाभारत के ‘गालवचरित’ – उद्योग पर्व के श्लोक 104 से 121 में कहा गया है। मेरी सलाह है कि दर्शक पहले मूल कहानी को पढ़ें और फिर भीष्म साहनी के नाटक को। क्यों ऐसा नाटक लिखा जाता है, बिना किसी के सलाह के स्पष्ट हो जाएगा।

नारद जी द्वारा यह कहानी दुर्योधन को समझाने के क्रम में कहा गया है, कि दुराग्रह और अभिमान का परिणाम अच्छा नहीं होता, अतः दुराग्रह छोड़ दो अन्यथा गालव की तरह तुम भी अंतहीन समस्याओं से घिर जाओगे। कहानी यह है कि गुरु विश्वामित्र, गालव को बिना गुरुदक्षिणा दिए जाने को कहते हैं, क्योंकि उसने गुरु की समर्पित भाव से सेवा की है। किन्तु गालव जिद करता है कि वह दक्षिणा देगा ही। उसे उसके दुराग्रह के लिए सबक सिखाने के उद्देश्य से विश्वामित्र असंभव-सा गुरुदाक्षिणा मांगते हैं – आठ सौ अश्वमेधी घोड़ों की दक्षिणा। गालव दुश्चिंता में फंस जाता है; और माधवी वह चरित्र है, जो उसे इस समस्या से निकालती है। महाभारत की मूल कहानी में गालव को यह तथ्य ज्ञात नहीं था कि माधवी को पुत्रोत्पत्ती के बाद पुनः क्वांरी कन्या बन जाने का वरदान प्राप्त है। स्वयं माधवी उससे कहती है कि आप दो सौ घोड़ों के लिए मुझे हर्यार्श्व को दे सकते है।[xiv] भीष्म साहनी ने इस तथ्य को ययाति के मुख से कलावाया है, ताकि दर्शक इस भ्रम में रहें कि इस बहु-विवाह के लिए माधवी की मंशा नहीं थी, और माधवी का शोषण हो रहा है। मूल पाठ में ययाति द्वारा सिर्फ इतना कहा गया है कि – तस्माश्चातुर्णी वंशानाम स्थापयित्री सुता मम। इयं सुरसुतप्रख्या सर्वधर्मोपचायिनी।। (मेरी यह पुत्री चार वंशो की स्थापना करने वाली है, इसका सौंदर्य देव कन्याओं के सामान है और यह सभी धर्मों की अभिवृद्धि करने वाली है।)

इससे स्पष्ट है कि माधवी के चार विवाह पूर्वोक्त थे – क्योकि वह चार वंशो की स्थापना करने वाली बतायी गयी है।

गालव सर्वप्रथम माधवी को राजा हर्यश्व के पास ले जाते हैं। मूल पाठ में राजा हर्यश्व माधवी को बाहर से ही देख कर उसके रूप-गुण का वर्णन करते हैं, (न कि राजज्योतिषी के द्वारा उसकी जांच पड़ताल होती है, जैसा कि नाटक में दिखाया गया है)

हर्यश्वस्त्वब्रवीद राजा विचिन्त्य बहुधा ततः। दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य प्रजा हेतोनृपोत्तमः।।

उन्नातेपून्नता षट्सु सूक्ष्मा सूक्ष्मेसु पञ्चसु। गंभीरा त्रिषु गम्भीरेष्वियं रक्त च पञ्चसु।।

बहुदेवासुरालोका     बहुगन्धर्वदर्शना।     बहुलक्षणसंपन्ना   बहुप्रसवधारिणी।।

सौन्दयवान स्त्री के इन लक्षणों का वर्णन प्राचीन ग्रन्थ सामुद्रिक शास्त्र में दिया गया है:

(श्रोण्यौ ललाट मरू च घ्राणं चेति षडुन्नतम। सूक्ष्माण्यंगुलिपर्वाणि केशारोमनखत्वचः।।

स्वरः सत्वं च नाभिश्च त्रिगम्भीरं प्रचक्षते। पाणिपादतलेरक्ते नेत्रान्तौ च नाखानी च।।)

छः उन्नत अंग – दो नितम्ब, दो वक्षस्थल, एक नासिका (नाक) और ललाट।

पांच सूक्ष्म अंग – अंगुली के पोर, नख, रोम, त्वचा और केश।

पांच रक्तवर्णी अंग – हथेली, तलवा, बांया नेत्रप्रान्त, दायाँ नेत्रप्रांत  और नख।

तीन गंभीर अंग (स्वभाव) – मनोबल (अन्तःकरण), स्वर और नाभि।

सामुद्रिक शास्त्र और सौंदर्य शास्त्र में कहीं कहीं हथेली, तलवा, नख जीभ और होंठ – इन पांच को रक्तवर्णी होना बताया गया है। तीन गंभीर अंगों में नाभि का अभिप्राय मनुष्य की केन्द्रीय प्रवृत्ति से है।[xv]

पुरातत्व से हम जानते हैं कि प्राचीन काल में स्त्री अथवा पुरुषों के पहनावे, आज की तरह नहीं होते थे। भारत ही नहीं बल्कि ग्रीक, इजिप्ट और रोमन सभ्यताओं में भी सामान्य रूप से ऐसे कपड़े पहने जाते थे, जिसमें शारीरिक बनावट स्पष्ट दीखता था। आज उन पहनावों को फैशनेबुल अथवा नग्नता कहा जाएगा। इस्लाम में तो उन पहनाओं पर अविलम्ब फतवा जारी होगा। जाहिर है, उपरोक्त वर्णित अंगो की पहचान के लिए कपड़े उतारने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु भीष्म साहनी ने एक अकेले श्लोक के इस वर्णन को पूरा एक विभत्स दृश्य बना डाला है, जिसमें राज ज्योतिषी कपड़े उतरवा कर माधवी के अंग प्रत्यंग का परीक्षण करता है।

महाभारत की इस कहानी का मूल उद्देश्य है महाभारत कालीन इस परंपरा के बारे में बताना कि विवाह और प्रसूति के बाद भी यदि एक स्त्री विवाह-मुक्त होती थी, तो समाज में उसके साथ एक क्वांरी कन्या की तरह की व्यवहार किया जाता था। जब माधवी दूसरी शादी के लिए दिवोदास के पास जाती है, और गालव उसे पूरा वृत्तांत सुनाने लगते हैं, तो दिवोदास कहते हैं: श्रुतमेतन्मया पूर्वे किमुक्त्वा विस्तारम द्विज। कांग्क्षितो हि मयैषोऽर्थः श्रुत्वैव द्विजसत्तम।।

“यह मैं पहले ही सुन चुका हूँ और विस्तार से कहने की क्या आवश्यकता है। आपके प्रस्ताव से मेरे मन में (विवाह और पुत्रोपत्ति की) आकांक्षा जागी है”।

इससे यह बताने की कोशिश की गई है कि परित्यक्ता अथवा विधवा स्त्री भी प्राचीन काल में एक पुरुष के लिए, क्वांरी कन्या की तरह सम्मानित और वैधानिक विवाह तथा पुत्रोपत्ति के लिए ग्राह्य थी।

इस संदेशात्मक कथा को, जिसमें दंभ और दुराग्रह के दुष्परिणाम को बताया गया है, स्त्रियों के खरीद-फरोख्त की कथा बताना जघन्य कृत्य है।

महाभारत में ही दूसरी कहानी भी है जिसमें इसी सामजिक मान्यता की पुष्टि होती है। सत्यवती के पहले पति परासर से उत्पन्न पुत्र व्यास, महाभारत के रचयिता हैं। उनका पहला विवाह-गन्धर्व विवाह था। पुत्रोत्पत्ति के पश्चात भारत के सम्राट से उनका विवाह होता है और सत्यवती के ही शर्तों पर होता है। यह सर्वविदित है कि सत्यवती ने शांतनु से इस शर्त पर विवाह किया कि उन्ही से उत्पन्न पुत्र सिंहासन का उत्तराधिकारी होगा। गंगा ने भी शांतनु से अपनी ही शर्तों पर विवाह किया था। आज ईक्कीसवीं सदी में भी, किसी भी सभ्यता में लड़की की शर्तों पर विवाह, और फिर पुरुष के द्वारा आजन्म उसका निर्वहन दुर्लभ है।  इसी महाभारत में दौपदी का भी वर्णन है, जिसने वरदान में स्वयं के लिए पांच पतियों को माँगा था। महाभारत में ही माधवी की माता देवयानी की कहानी भी है, जिसमें उसकी महत्वाकांक्षा, उछृन्खलता और उन्मुक्त जीवन का जीवंत चित्रण है। यदि भारत में अनुदार पितृसत्तात्मक सामजिक व्यवस्था होती तो उपरोक्त कहानियों का कोई जिक्र ही नहीं होता। किन्तु इन कहानियों को किसी प्रगतिवादी ने नाटक का विषय नहीं बनाया। क्योंकि ये प्राचीन भारत में स्त्रियों के स्वछन्दता के अकाट्य प्रमाण होंगे। भारत और अमेरिका जैसे प्रजातांत्रिक देशों में भी मुस्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति जानवरों की तरह है, उस पर क्यों नहीं नाटक बनाए जाते? क्योंकि वहां फ़तवा जारी होने का भय है – हिन्दू संस्कृति की महानता से इर्ष्या करने वालों द्वारा दिया गया प्रलोभन तो मूल में है ही।

इस नाटक में लेखक ने गालव और माधवी में प्रेम दिखाया है, जो वास्तव में बिलकुल ही दोषपूर्ण है। मूल कथा में इस ओर रंचमात्र भी इंगित नहीं किया गया है। और तो और, माधवी को ययाति से प्राप्त करने के बाद, गालव की भूमिका एक पिता की है, जो ‘आसुरी विवाह’ के अंतर्गत ‘शुल्क’ लेकर उसका विवाह करता है[xvi]।  ज्ञातव्य है कि ‘शुल्क’ शब्द खरीद-फरोख्त का ‘मूल्य’ या ‘दाम’ नहीं है। हिन्दू धर्म में आठ प्रकार के विवाहों में एक, आसुरी विवाह के अंतर्गत, वर पक्ष के द्वारा कन्या के पिता को ‘शुल्क’ अथवा आज की भाषा में “bride-price” दिया जाता है[xvii]। अतः गालव की भूमिका एक पिता की तरह है, जिसे लेखक ने प्रेमी बना डाला है। यदि यह काम उन्होंने हजरत साहब के संदर्भ में किया होता संसार भर के मुस्लिम घरों से फ़तवा जारी होता और लेखक पद्म पुरस्कार के लिए जिन्दा नहीं होते। किन्तु हिंदुत्व संसार भर में अपनी सहिष्णुता के लिए जाना जाता है। हिन्दू धर्म की सहिष्णुता ने ही इसे हजार वर्षों तक गुलाम रखा। किन्तु यह भी सत्य है कि तमाम दुराग्रहों और अत्याचारों के बावजूद, भारतीय संस्कृति फलता फूलता रहा और समृद्ध है। हाँ, इसे समाप्त करने की मंशा रखने वाले जरुर ख़तम हो रहे हैं।

बौद्ध-जैन काल तथा परवर्ती समाज में भी स्त्रियों के स्वछन्द और प्रतिष्ठित जीवन के अनेकानेक प्रमाण हैं। वैशाली की नगरवधू आम्रपाली को उसके निम्न व्यवसाय के बावजूद ‘जनपद-कल्याणी’ जैसे उपाधि से विभूषित किया गया। उसका दर्जा किसी भी प्रकार लिच्छवी कुमारों या सामंतों से कम नहीं था[xviii]। मगध के नगरवधू के लिए ‘नगर-शोभिनी’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। लिच्छवियों में स्त्री योद्धायें भी थीं। जैन तथा बौद्ध धर्म में स्त्री पुरुष दोनों का प्रवेश मान्य था।

यह एक विचित्र बात है कि जिस किसी ग्रन्थ में, हिन्दू समाज की स्त्रियों के उच्च स्थिति का अकाट्य प्रमाण मिलता है उसे प्रगतिवादी काल्पनिक बताते हैं; और जहाँ कपोल कल्पना के आधार हिन्दू स्त्रियों को निम्न अवस्था में दिखाया जाता है, उसे अक्षरशः सत्य बताने वाला ग्रन्थ मान लेते हैं। भारत की प्रतिष्ठित संस्था CCRT में बैठे एक तथाकथित प्रगतिवादी महिला का कथन है कि आम्रपाली एक काल्पनिक चरित्र (Fictitious  Character) है, जिन ग्रंथों में उसकी चर्चा है, वे काल्पनिक हैं। जबकि आम्रपाली पर विश्व भर में सैंकड़ों शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं, उसके अस्तित्व के साहित्यिक और पुरातात्विक प्रमाण हैं। दूसरी ओर, काल्पनिक नाटक माधवी को इतिहास की किताब मान कर उसके आधार पर प्राचीन भारत में स्त्रियों के स्थति का वर्णन करने वाले वैसे लोग भी हैं, जिनका अपना धर्म ही स्त्री पर अत्याचार के लिए कुख्यात है। अगर भारत सरकार इस धर्म में स्त्री कल्याण के लिए कोई क़ानून बनाती है तो इनका पूरा समाज उठ खड़ा होता है – और ये उस पर कोई नाटक नहीं करते। इन्हें यह भी नहीं मालूम रहता है कि इनकी जड़ता पर श्रोता और दर्शक हंसते हैं। वैसे इस प्रकार के लोगों की एक मजबूरी भी है – इनमें अपनी कोई रचनात्मक क्षमता नहीं होती, इसलिए इनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती। ऐसे लोग किसी वाद से जुड़ कर ही अपनी आत्म-पहचान बना पाते है। अध्ययन भी उतना ही करते हैं, जिससे परीक्षा पास कर सकें। अतः जो एक बार सुन लिया वही ताउम्र दुहराना इनकी मजबूरी है।

राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण हिन्दू संस्कृति की छवि धूमिल करने के प्रयास इसलिए भी किये जाते हैं, कि संसार की अन्य सभी प्रतिद्वंदी संस्कृतियों में जिसमें पाश्चात्य और मुस्लिम धर्म भी शामिल है, कठोर पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था रही है। गुलाम स्त्रियों के खरीद फरोख्त और शोषण का इतिहास रहा हैं। उन संस्कृतियों का लिखित इतिहास उपलब्ध है इसलिए तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता। अतः जहाँ नारी-विमर्श अथवा ज्ञान-परंपरा की बात आती है, वहां भारतीय संस्कृति स्वमेव ही एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक-सामाजिक व्यवस्था के रूप में उभर कर सामने आता है, जिसके सम्मुख अन्य सभी संस्कृतियाँ धूमिल पड़ जाती हैं।  यही कारण है कि अनवरत इस संस्कृति में छिद्र ढूँढने के प्रयत्न जारी रहते हैं, जबकि वास्तविक स्त्री-दमन की जो समस्याएं वर्तमान हैं, उन पर ध्यान नहीं दिया जाता।

मुस्लिम समुदाय का तीन तलाक और तालिबानी क़ानून पूरे विश्व में एक धिकृत क़ानून है। भारत में सभी सरकारी कानूनों के बावजूद लड़कियों के कपड़े पहने तक का फरमान और फतवा जारी होता रहता है। मुस्लिम समाज में स्त्री बिना पुरुष के सहमति से तलाक नहीं ले सकती। लेकिन पुरुष तीन बार तलाक कह कर उसे घर के बाहर फेंक सकता है। इस्लाम में बहुविवाह की प्रथा है। एक आदमी एक समय में चार पत्नियाँ रख सकता है। ये सामजिक बुराइयां नाटकों का विषय कभी नहीं बनीं। यहाँ तक कि भारत सरकार के तीन तलाक क़ानून का भी विरोध इन्ही प्रगतिवादियों ने; और अपने आपको ‘लिबरल’ कहनेवालों ने किया। भारत जैसे देश में जहाँ जनाधिक्य है, मुस्लिम समुदाय का जनसँख्या पर रोक के नियमों को नहीं मानना वामपंथियों की नजर में सामाजिक बुराई नहीं है! उस पर नाटक नहीं बनते, लेकिन भगवन राम, माता सीता और हिन्दू धर्म की प्रतीक-स्त्रियों और प्रतीक-पुरुषों को गाली देना हो तो वहां धर्म का मामला नहीं होता। भारत की सहिष्णुता ने इसे बहुत रूलाया है, अतः अब भारतीय युवकों को इतिहास से सीख ले कर आगे की सोंच बनानी है।

उन देशों में जहाँ शरिया क़ानून लागू है, फांसी की सजा पायी क्वांरी लड़कियों का, फांसी के पहले बलात्कार किया जाता है। जींस पहनने के लिए लडकी को पत्थर मार कर मौत के घाट उतार दिया जाता है। और यह सब इक्कीसवीं सदी में हो रहा है। यदि दो तीन शताब्दी ही पीछे जाएँ तो वहां के दृश्य रोंगटे खड़े करने वाले हैं।  सभी पश्चिमी देशो और अरब तथा मेसोपोटामिया में गुलामों की परंपरा थी। वहां गुलाम स्त्रियों का आलू-प्याज की तरह खरीद-फरोख्त होता था। उनका यौन, शारीरिक और मानसिक शोषण ऐसे किया जाता था जैसे वे मनुष्य नहीं हों। इस्लाम के संस्थापक हजरत साहब युद्ध में बंदी बनाए गए स्त्री गुलामों का बंटवारा अपने सिपाहियों में किया करते थे[xix]। उनके के पास गुलाम रखैलो का एक बड़ा जमावड़ा था[xx]। ऐसे-ऐसे तथ्य है, जिन्हें अगर उजागर किया जाए तो संसार भर का मुस्लिम समुदाय जिहाद पर आएगा। किन्तु वामपंथी प्रगतिवादियों को सिर्फ हिन्दू समाज की ही बुराइयां नजर आती हैं।

भारत में भी स्त्रियों के स्थिति की अवनति मौर्य काल के बाद इन्ही विदेशी घुसपैठ के कारण आरम्भ हुआ। शक, सीथियन, हूण आदि के आक्रमणों और उसके बाद हिन्दू समाज में उनके घुल मिल जाने के कारण वैदिक सामजिक व्यवस्था का क्षय होने लगा। बारहवीं शताब्दी के मुस्लिम आक्रमण और प्रभुत्व के बाद हन्दू समाज की स्त्रियाँ, जो वैदिक काल में पुरुषों से श्रेष्ठ स्थिति में थी, अचानक से घरों में बंद कर दी गई। यह विश्वविदित हैं, कि मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा पराजित राज्य के स्त्रिओं का बलात्कार और उन्हें यौन गुलाम बना कर उनकी खरीद फरोख्त की सुदीर्घ परंपरा रही है। भारत से बाहर के इतिहासकारों और यात्रियों द्वारा भारत में इस्लामी अत्याचारों के अनगिनत वर्णन किये गए हैं जो भारत और विश्व के इतिहास में दर्ज है[xxi]। गुप्त काल के बाद से ही इसके समृद्धि के कारण भारत पर इस्लामी आक्रमण होने लगे थे। 12 वीं शताब्दी में मुहम्मद गोरी के अआक्रमण के बाद इस्लामी बर्बरता का सबसे बड़ा शिकार हिन्दू महिलायें हुईं हैं[xxii]। इन घटनाओं का एक संक्षिप्त इतिहास विकिपीडिआ में भी देखा जा सकता है[xxiii]

इस्लामी स्टेट के उग्रवादियों ने आज फिर से उस मध्यकालीन यौन-गुलामों के खरीद-फरोख्त के पेशे को पुनर्जीवित किया है, और धार्मिक आधार पर उसे न्यायसंगत बताते हैं[xxiv]

ICHR के पूर्व अध्यक्ष और इतिहासकार के. एस. लाल[xxv] ने लिखा है कि

“Enslavement of women, children and men, followed by their sexual exploitation was an integral part of the Muslim rule in Medieval India”. “महिलाओं, बच्चों और पुरुषों की दासता, और उसके बाद स्त्रियों का यौन शोषण, मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शासन का एक अभिन्न अंग था”।

इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि “The bloodstained annals of Sultanate of Delhi are not pleasant reading”[xxvi]. (दिल्ली सल्तनत का रक्तरंजित इतिहास पढ़ना आनंद का विषय नहीं है।)

H. A. R. Gibb[xxvii], जिन्होंने इब्न बत्तुता के यात्रा वर्णन का ट्रांसलेशन किया है, लिखा है कि,

“Of all the successors of Qutb-ad-Din down to the establishment of the Timurid dynasty (the 44 Grand Moguls) in 1526, there is scarcely one who was not intolerant, tyrannical, and cruel, and the same may be said, with few exceptions, of the minor dynasties.” (“कुतुब-अद-दीन के सभी उत्तराधिकारियों में, 1526 में तैमूर राजवंश (44 ग्रैंड मोगल्स) की स्थापना तक, शायद ही कोई ऐसा हो जो असहिष्णु, अत्याचारी और क्रूर नहीं था, और ऐसा ही, कुछ अपवाद के साथ, मामूली राजवंशों के लिए भी कहा जा सकता है”।)

इब्ने बतूता जो एक मोरक्कन यात्री था, 1333 से 1341 के बीच मुहमद बिन तुग़लक के सल्तनत में रहा था। अपने यात्रा वर्णन में उसने लिखा है,

“At (one) time there arrived in Delhi some female infidel captives, ten of whom the Vazir sent to me. I gave one of them to the man who had brought them to me…. My companion took three girls, and — I do not know what happened to the rest.”[xxviii]

[“(एक) समय वहां दिल्ली में कुछ काफिर (हिन्दू) महिलाओं को बंदी बना कर लाया गया, जिनमें से दस को वज़ीर ने मेरे पास भेजा। उनमें से एक मैंने उस आदमी को दे दिया, जो उन्हें मेरे पास लाया था …. तीन लड़कियों को मेरे साथी ने ले लिया, और – मुझे नहीं पता बाकी का क्या हुआ। ”]

उत्सवों के अवसर पर काफ़िर (हिन्दू) गुलाम लड़कियों के बंटवारे के बारे बत्तुता आगे लिखता है,

“First of all, daughters of Kafir (Hindu) Rajas captured during the course of the year, come and sing and dance. Thereafter they are bestowed upon Amirs and important foreigners. After this daughters of other Kafirs dance and sing… The Sultan gives them to his brothers, relatives, sons of Maliks etc. On the second day the durbar is held in a similar fashion after Asr. Female singers are brought out… the Sultan distributes them among the Mameluke Amirs”

[सबसे पहले, साल भर में पकड़ी गई हिन्दू राजाओं की लड़कियां आतीं हैं, जिन्हें नचवाया और गवाया जाता है, उसके बाद उन्हें अमीरों और विदेशी अथिथियों को दे दिया जाता है। इसके बाद साधारण काफिरों (हिन्दुओं) की लड़कियों को गवाया और नचाया जाता है, और उसके बाद सुल्तान उन्हें अपने भाइयों, रिश्तेदारों और ‘मालिक’ के बेटों को दे देता है। इसी तरह दुसरे दिन भी ‘अस्र’ के बाद दरबार लगता है, काफिरों की बेटियों से नचवाया और गवाया जाता है और सुलतान उन्हें ‘मामेलुक’ अमीरों को दे देता है”।]

इस भयानक और घिनौनी स्थिति के कारण ही भारत के राजपूतों और अन्य लड़ाकू जातियों में जौहर की प्रथा का शुरुआत हुआ। पुरुषों के युद्ध में मारे जाने के बाद मुस्लिम विजेता सम्पत्ति और स्त्रियों को लूटते थे और फिर आजन्म उन्हें यौन गुलाम बना कर उनका खरीद-बिक्री और उपहार की वास्तु के रूप में रूप में प्रयोग किया जाता था। एक स्त्री तीस बार तक विभिन्न खरीददारों से बेची जाती थीं[xxix]। यौन गुलामों को अंग ढकने का अधिकार नहीं होता था[xxx]। हर खरीददार, खरीदने के पहले उसके अंगप्रत्यंग का परीक्षण करता था[xxxi]। [शायद इसी मुसलमानी आचार को भीष्म साहनी ने माधवी के सन्दर्भ में आरोपित किया है]

इस्लाम में यह-सब धार्मिक प्रचालन के रूप में स्थापित था। अतः जैसे ही युद्ध में हारने का संकेत मिलता था, सामूहिक रूप से हिन्दू स्त्रियाँ आग में जल मरती थीं। बाद में यही परंपरा, सती प्रथा के रूप में बदल गयी, और यही कारण है कि मुख्य रूप से सती प्रथा का प्रचलन योद्धा-जातियों में ही था[xxxii]। ऐसी स्थिति में हिन्दू समाज और धार्मिक नियमों में बहुत से बदलाव आये, जिनमें लड़कियों की स्वतंत्रता कम कर दी गयी। उन्हें संरक्षित किया जाने लगा, उनके बाहर जाने पर रोक लगाया गया, उनके विवाह जल्दी किये जाने लगे, क्योंकि क्वांरी और बिन बच्चों की लड़कियां अतातायियों का प्रमुख निशाना हुआ करती थीं[xxxiii]

जाहिर है ये सामजिक बदलाव शनैः शनैः धर्मशास्त्रों के नियमों के रूप में तब्दील हो गये, जिनको ले कर प्रगतिवादी हाय तोबा मचाते हैं, लेकिन इसके कारणों पर जाने और चर्चा करने की हिम्मत नहीं करते।

ज्ञातव्य है कि वामपंथी नाटककार गिरीश कर्नाड ने, हिन्दुओं के कत्लेआम और बर्बरता के लिये प्रसिद्द मुहम्मद बिन तुगलक के जीवन पर नाटक ‘तुगलक’ लिखा है, जिसमें उन्होंने सुलतान को ‘सेक्युलर’ बताया है। गिरीश कर्नाड के अनुसार ऐतिहासिक नाटक के जमीन पर तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्था से मोहभंग को इस नाटक में दिख्याया गया है। किन्तु, विश्व-प्रसिद्द धार्मिक-असहिष्णु सुलतान को एक दम से धर्मनिरपेक्ष बता देने की इस चेष्टा को निर्लज्जता के आलावा किस शब्द से संबोधित किया जा सकता है? तथ्यों को छुपा कर हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि भले ही स्कूल की शिक्षा से इन तथ्यों को निकाल दिया गया हो, विश्वविद्यालय के इतिहास के छात्रों को तो इन तथ्यों के बारे में जानकारी है ही। उन्हें तो पता चल जाता है कि ऐतिहासिक नाटक में तथ्यों का सम्मान नहीं किया जाता। इससे रंगमंच की विश्वसनीयता समाप्त होती है।

इन्ही कारणों से प्रगतिवादी रंगमंच भारतीय समाज पर कोई छाप नहीं छोड़ सका। प्रगतिवादी रंगमंच और लेखकों का संगठन अब लगभग अंतिम साँस गिन रहा है। के. एन. पणिक्कर जैसे मार्क्सवादी भी इस बात को स्वीकार करते हैं, कि प्रगतिवादी रंगमंच और इप्टा, छिटफुट और क्षेत्रीय स्तर पर ही जीवित है, बदलते समय और दर्शकों के साथ खुद को  समंजित नहीं कर सके[xxxiv]

रंगमंच को प्रगतिवादी आदर्श और खेमें से बाहर निकालना जरुरी है। क्योंकि इस ‘वाद’ ने नाटक को ऐसा बना दिया है जिससे समाज में रंगकर्मियों का कोई ख़ास इज्जत नहीं है।  उन्हें ‘नचनिया बजनिया’ कहा जाता है। एक नवयुवक यदि समर्पित भाव से रंगमंच करना शुरू करता है, तो बाल पकने तक भी कोई उसे अपनी लड़की नहीं देना चाहता। क्योंकि इसमें न तो इज्जत है न आमदनी। अंत में बेचारा कलाकार मंच पर ही कही रंग जमा लेता है और सेहरा बांध लेता है। अतः नाटकों के विषय में बदलाव आवश्यक है, ताकि आम आदमी इससे जुड़ सके। स्त्री अथवा दलित पर अत्याचार की एक घटना, स्त्रियों और दलितों की सामजिक स्थिति का परिचायक नहीं हो सकता। इस तरह की घटनाएं हर देश और हर काल में होती रहीं हैं और वहां कानून अपना काम करता है। यदि नहीं करता तो जनता अपना काम करती है, जैसा कि विगत वर्षों में हमने कई बार देखा है। इस तरह के विषय ‘मार्क्स-धर्म’ निभाने के लिए प्रयुक्त हो सकते हैं, क्योंकि उनके लिए दुनिया की शुआत मार्क्स के जन्म के बाद हुआ है और सभ्यता की शुरुआत ‘रिनेशां’ के बाद हुआ है। किन्तु ये विषय दर्शक नहीं जुटा सकते। अतः नाटक को उपादेय बनाना और वास्तविकता के निकट लाना आवशयक है, और इस कार्य को स्वतंत्र चिंतन वाले युवा रंगकर्मी ही कर सकते हैं।


[i] चाहे उसके द्वारा प्रतिपादित एपिक थिएटर का कांसेप्ट हो अथवा तथाकथित V-effect फार्मूला, ये सभी मार्क्सवादी विचारों के प्रचार में नाटक को इस्तेमाल करने प्रविधियां थीं। खुद ब्रेख्त का कथन है कि “Marx is the only audience for my plays that I had come across”। 1995 में प्रकशित पुस्तक The Life and Lies of Bertolt Brecht में John Fuegi ने, ब्रेख्त के सहयोगी और उसके गर्ल गर्ल फ्रेंड्स के साथ साक्षात्कार तथा अप्रकाशित शोध पत्रों पर 25 वर्षों तक किये काम के आधार पर ब्रेख्त के बारे बहुत कुछ खुलासा किया है, जिसमें चौंकाने वाली बात यह है कि ब्रेख्त के नाटकों का 80 प्रतिशत उसके गर्ल फ्रेंड्स Elisabeth Hauptmann, Marieluise Fleißer, Ruth Berlau और Margarete Steffin द्वारा ब्रेख्त के sex-for-text स्कीम के तहत लिखा गया था। इन्हें इनके काम का क्रेडिट देने की बात तो दूर, ब्रेख्त ने इन औरतों के मरने जीने की परवाह भी नहीं की।

[ii] यह जुमला भी ब्रेख्त का ही है।

[iii] यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। Manusmriti, 3-56

[iv] Altekar, A. S. Position of Women in Hindu Civilization Chap-6 Page 232

[v] अस्वलायण गृह्य सूत्र – II, 3-17

[vi] अथ य इच्छेद्दुहिता मे पण्डिता जायेत, सर्वमायुरियादिति, तिलौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयाताम्; ईश्वरौ जनयितवै ॥ १७ ॥

He who wishes that a daughter should be born to him who would be a scholar and attain a full term of life, should have rice cooked with sesamum, and he and his wife should eat it with clarified butter. Then they would be able to produce such a daughter.

वृहदारण्यक उपनिषद VI – 4 – 17

[vii] Kennedy KAR, Chiment J, Disotell T, Meyers D (1984) Principal components analysis of prehistoric South Asian crania. Am J Phys Anthropol 64(2): 105–118

[viii] 30 ब्रह्म्वादिनियों की चर्चा ऋग्वेद में है।

[ix] Rig Veda 1.32.9, 5.61.6, 5.61.9, 10.39, 40

[x] IBID – 1.9.2, 1.9.4

[xi] IBID – IX 85.43

[xii] Rv, X 27.12

[xiii] https://youtu.be/BfPlqVSJtK4

[xiv] एतच्छ्रुत्वा तु सा कन्या गलावं वक्यमब्रवीत। मम दत्रो वरः कश्चित् केनचिद ब्रह्मवादिना।।

प्रसूत्यंते प्रसूत्यंते नन्यैव त्वं भविष्यसि। सा त्वं ददस्व मा राज्ञे प्रतिगृह्य हयोत्त्मान।।

नृप्येभ्यो हि चतुभर्यस्ते पूर्णान्याष्टौ शतानि में। भविष्यान्त ठाठ पुत्रा मम चत्वार एव च।।

क्रियतामुपसंहारो गुंवर्थे द्विजसत्तम। एषा तावन्मम प्रज्ञा यथा वा मन्यसेद्विज।।

(यह सुन कर कन्या ने महर्षि गालव से कहा “मुने, कभी किसी वेदवादी ब्राहमण ने कहा था कि हर प्रसव के बाद तुम क्वांरी कन्या बन जाओगी। अतः आप दो सौ उत्तम घोड़े ले कर मुझे राजा को सौंप दें।

[xv] भारतीय साहित्य की एक विशेष परंपरा रही है कि कहानियों और आख्यानों में विभिन्न विषयों की जानकारी किसी बहाने पाठक तक पहुंचाया जाता है। इसी कहानी में गरुड़ के द्वारा गालव को चार दिशाओं की तत्कालीन भौगोलिक स्थिति का परिचय कराया गया है। कालिदास के मेघ-दूतम में भी यक्ष के संवाद के द्वारा उस समय की भौगोलिक स्थिति एवं पर्वतों की अवस्थिति का वर्णन किया गया है। यह सूचनाएं इतिहासकारों के लिए  किसी रचना विशेष के काल निर्धारण में सहायक होती हैं। महाभारतकार ने हर्यश्व के बहाने सामुद्रिक शास्त्र में पूर्ण सौन्दर्यवान स्त्री के लक्षणों की जानकारी प्रस्तुत किया है। इसका मतलब यह हुआ कि वर्तमान रचना (महाभारत) सामुद्रिक शास्त्र के प्रणयन के बाद की रचना है। यह सही भी है, क्योंकि सामुद्रिक शास्त्र की मौखिक परंपरा वैदिक काल से है जबकि महाभारत उत्तर वैदिक काल का माना जाता है।

[xvi] Manusmriti

[xvii] यही शुल्क बाद में चल कर हिन्दू धर्म में ‘स्त्री-धन’ के रूप में पिता द्वारा कन्या को दिया जाता था। मुस्लिम धर्म में ‘महर’ का प्रचलन, इसी हिन्दू व्यवस्था से प्रेरित है। आज भी हिन्दू लॉ में भी स्त्री धन पर सिर्फ स्त्री का अधिकार होता है।

[xviii] Mhaparinirvan sutra,

[xix] Baladhuri, Kitab Futuh al-Buldan (“Book of Conquests”) – 9th century:

During Muhammad’s jihad on the Jews of Khaybar, he took for himself from among the spoils of war one young woman, a teenager, Saxya bint Huyay, after hearing of her beauty. (Earlier the prophet had bestowed her on another Muslim jihadi, but when rumor of her beauty reached him, the prophet reneged and took her for himself.

Muhammad “married” Saxya hours after he had her husband, Kinana, tortured to death in order to reveal hidden treasure. And before this, the prophet’s jihadis slaughtered Saxya’s father and brothers.

After the death of Muhammad, Saxya confessed that “Of all men, I hated the prophet the most—for he killed my husband, my brother, and my father,” before “marrying” (or, less euphemistically, raping) her.

[xx] https://wikiislam.net/wiki/List_of_Muhammads_Wives_and_Concubines ,

Khan, Muqtedar A., ‘SEX-SLAVERY & CONCUBINAGE’ Chapter VII – ‘Islamic Jihad: Legacy of Forced Conversion, Imperialism, and Slavery.

Other sources:  Al Tabari, Ibn Ishaq, Ibn Hisham, Ibn Sa’d; रंगीला रसूल, पंडित चमूपति, लाहौर, 1927.

[रंगीला रसूल was written by an Arya Samaji named Pandit M. A. Chamupati or Krishan Prashaad Prataab in 1927, whose name however was never revealed by the publisher, Mahashe Rajpal of Lahore. It was a retaliatory action from the Hindu community against a pamphlet published by a Muslim depicting the Hindu goddess Sita as a prostitute. On the basis of Muslim complaints, Rajpal was arrested but acquitted in April 1929 after a five-year trial because there was no law against insult to religion.

Muslims, however, continued to try to take his life. After several unsuccessful assassination attempts on him, he was stabbed to death by a young carpenter named Ilm-ud-din on 6 April 1929. Ilm-ud-din was sentenced to death and the sentence was carried out on 31 October 1929. Ilm-ud-din was represented by Mohammad Ali Jinnah as a defense lawyer.

Rangila Rasul had a surface appearance of a lyrical and laudatory work on Muhammad and his teachings; for example it began with a poem which went “The bird serves the flowers in the garden; I’ll serve my Rangila Rasul”, and called Muhammad “a widely experienced” person who was best symbolized by his many wives, in contrast with the lifelong celibacy of Hindu saints.

Originally written in Urdu, it has been translated into Hindi. It remains banned in India, Pakistan and Bangladesh.]

[xxi] Muhammad and Islam’s Sex Slaves by Raymond Ibrahim, FrontPage Magazine, October 16, 2014,

Tabqat-i-Nasiri, and Tarikh-i-Firoz Shah.

[xxii] Tabaqat-i Nasiri; Ibn Battuta; Firishta, Muhammad Qãsim Hindû Shãh; John Briggs (translator) (1829–1981 Reprint). Tãrîkh-i-Firishta (History of the Rise of the Mahomedan Power in India). New Delhi.

[Hindu temples were felled to the ground and for one year a large establishment was maintained for the demolition of the grand Martand temple. But when the massive masonry resisted all efforts, it was set on fire and the noble buildings cruelly defaced.]

Nicholas F. Gier, FROM MONGOLS TO MUGHALS: RELIGIOUS VIOLENCE IN INDIA 9TH-18TH CENTURIES

[xxiii] https://en.wikipedia.org/wiki/Persecution_of_Hindus

[xxiv] https://en.wikipedia.org/wiki/Sexual_violence_in_the_Iraqi_insurgency

[xxv] Lal, K. S., Muslim Slave System in Medieval India; South Asia Books; 1994, ISBN: 8185689679

[xxvi] Smith, Vincent, Oxford History of India, pages 236 to 246

[xxvii] Ibn Battuta, Travels in Asia and Africa 1325-1354

[xxviii] IBID

[xxix] Afrey, 2009, page 82

[xxx] Kamrava 2011, p. 193

https://en.wikipedia.org/wiki/Sexual_slavery_in_Islam

[xxxi] Pernilla, 2019, page 218

[xxxii] Ekar A.S., Position of women in hindu civilization, 1938, pp. 135-167

मुसलमान सुल्तानों और सामंतों ने  ‘डोला लेने’ की परंपरा बनाई जिसमें नवविवाहिता के डोली का अपहरण कर उसे सुलतान या अमीर के यहाँ ले जाया जाता था और बलात्कार के बाद उसके ससुराल वालों को सौंपा जाता था। इससे लड़कियों को सूअर की हड्डी से बना मंगल सूत्र पहनाया जाने लगा ताकि मुसलमान उसके शरीर को अपवित्र समझ कर छू न सकें। मुसलमानी आतंक के समाप्ति के 3 सौ साल बाद भी कुछ हिन्दू समुदायों में, खास कर राजपूतों में, यह परंपरा आज तक वर्तमान है जिसमें वधूओं को गहनों में अनिवार्य रूप से ‘ताग-पात-ढोलना’ चढ़ाया जाता है, जिसके ‘ढोलना’ में सूअर की हड्डी होती है।

[xxxiii] Surah xxxiii: 49, “Verily we make lawful ……… for thee what thy right hand possesses out of the booty God hath granted thee.” Muslims are allowed to take possession of married women if they are slaves.

Surah IV:3, 28, 29

Pernilla, 2019, p 222-23

[xxxiv] Panikkar, Social Scientist, Vol. 39, No. 11/12 (November–December 2011), pp. 14-25

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